प्रमुख कवि और उनकी रचनाएँ, भाषा एवं विधा सहित 9

आदिकाल (वीरगाथा-काल)

UP Board Solutions for Class 9 Hindi प्रमुख कवि और उनकी रचनाएँ, भाषा एवं विधा सहित
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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
वीरगाथा काल के काव्य की सामान्य विशेषताएँ बताइए।
उत्तर :
वीरगाथा काल हिन्दी साहित्य का आरम्भिक काल है। प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं के पश्चात् अब हिन्दी उत्तर भारत में सर्वसाधारण के व्यवहार की भाषा हो गयी थी । वीरगाथा काल का आरम्भ 10वीं शताब्दी ईसवी से माना जाता है। इस समय उत्तर भारत में राजपूत राजाओं के बहुत से छोटे-छोटे राज्य थे। इन राज्यों में प्रभुत्व के लिए परस्पर युद्ध हुआ करते थे। मुसलमानों के आक्रमण भी आरम्भ हो गये थे। इस समय की काव्य रचनाओं में भी युद्धों के अनेक वर्णन हैं। काव्य-ग्रन्थों में वीररस को प्रधानता मिलती है। इसी कारण इस काल को वीरगाथा काल कहा गया है।

वीरगाथा काल के काव्य की सामान्य विशेषताएँ –

1. इस काल का काव्य राज्याश्रय में लिखा गया। कवि राज-दरबार में राजा के आश्रय में रहता था और युद्ध के समय राजा और उसकी सेना को प्रोत्साहित करने के लिए वीर रस की रचना करता था। वह सेना के साथ युद्ध भूमि में भी उपस्थित रहता था। शांति के समय वह राजकुमारियों के सौन्दर्य का वर्णन करके राजा का मनोरंजन भी करता था। ये कवि चारण (भाट) होते थे। इसी कारण इस काल को चारण-काल भी कहा गया है।

2. इस काल के कवियों ने प्रबन्धात्मक काव्य की रचना की। काव्य रचनाएँ प्रायः आश्रय देनेवाले शासक की जीवन गाथाएँ होती थीं, जिनमें शासक द्वारा किये गये युद्धों का वर्णन और राजकुमारियों के अपहरण की कथाएँ होती थीं। इस काल का काव्य प्रशंसात्मक काव्य था। कुछ गाथाएँ ऐसी भी लिखी गयीं जिनको वीरगीतों के रूप में गाया जाता था। इस काल के काव्य-ग्रन्थों को ‘रासो’ कहा गया है।

3. इस काल के काव्य में वीर रस की प्रधानता रही। वीर के साथ रौद्र, भयानक और वीभत्स रस के प्रसंग भी मिलते हैं। गाथाओं में श्रृंगार भी प्रचुर मात्रा में विद्यमान है। कवियों से राजकुमारियों का नख-शिख वर्णन सुनकर उनके अपहरण के लिए अभियान होते थे और स्वयंवर-स्थल युद्ध-स्थल में बदल जाते थे।

4. इस काल के काव्य में अलंकारों का भी प्रचुर मात्रा में प्रयोग मिलता है। क्रवि अलंकार का प्रयोग केवल चमत्कारप्रदर्शन के लिए नहीं, बल्कि अपने भावों को प्रभावोत्पादक एवं उनकी अभिव्यक्ति को सुन्दर और स्पष्ट बनाने के लिए करते थे। इस काल के काव्य में विशेष रूप से उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अतिशयोक्ति, यमक, श्लेष, संदेह आदि अलंकारों का प्रयोग मिलता है।

5. वीरगाथा काल का काव्य कवित्त, छप्पय, दूहा, भुजंगप्रयात तथा वीर छंदों में लिखा गया। इस काल के कवियों की छंद-योजना की विशेषता यह रही कि छंद वर्म्य-वस्तु के अनुकूल लिखे जाते थे।

6. वीरगाथा काल का काव्य वर्णन-प्रधान था। इसमें युद्धों के अनेक सजीव वर्णन मिलते हैं। युद्ध-वर्णन के साथ सेनाप्रयाण, अस्त्र-शस्त्र, युद्ध-भूमि, आखेट, राजमहल, राजदरबार आदि के भी प्रभावशाली वर्णन हैं राजकुमारियों का नख-शिखवर्णन परम्परागत शैली में किया गया है। कहीं-कहीं पर ऋतु वर्णन और प्रकृति-सौंदर्य का वर्णन भी प्रभावशाली शैली में किया गया है।

7. वीरगाथा काल से सम्बन्धित काव्य विशेषत: डिंगल भाषा में लिखा गया। यह हिन्दी का राजस्थानी रूप है। अपभ्रंश के शब्द इसमें प्रचुरता में मिलते हैं। यह भाषा वीररस के काव्य के लिए उपयुक्त है।

8. वीरगाथा काल के काव्य से ही हम समझ पाते हैं कि आरम्भ में हिन्दी भाषा का क्या रूप था। इस काव्य से हमें 10वीं से 12वीं । शताब्दी ईसवी में घटित होनेवाली अनेक ऐतिहासिक घटनाओं की जानकारी होती है।

प्रश्न 2.
भक्तिकालीन हिन्दी-काव्य की सामान्य विशेषताएँ लिखिए। अथवा भक्तिकाल को हिन्दी काव्य का स्वर्ण-काल क्यों कहा जाता है?
उत्तर :
वीरगाथा काव्य के बाद हिन्दी में भक्ति-काव्य की रचना हुई। देश में मुसलमानों ने अपना राज्य स्थापित कर लिया था। वे हिन्दू धर्म, हिन्दू सभ्यता और संस्कृति को नष्ट करके इस्लाम धर्म और उसी से सम्बन्धित सभ्यता और संस्कृति की स्थापना करना चाहते थे। ऐसी स्थिति में भारत की जनता की ओर से धर्म और सभ्यता की रक्षा का प्रयत्न स्वाभाविक था। उस युग में प्रचलित धर्म सम्प्रदायों का रूप भी विकृत हो गया था और देश की जनता उसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी। अतः धर्म मुधार के जो आन्दोलन चले उनसे प्रभावित धार्मिक काव्य एवं साहित्य उस काल में लिखा गया। उसमें भक्ति-भावना की प्रधानता हो। इसी कारण इस काल को भक्ति-काल कहा गया। भक्तिकाल का आरम्भ सन् 1343 ई० से हुआ और सन् 1643 ई० तक भक्ति-प्रधान काव्य लिखा जाता रहा।

भक्ति-भावना के दो प्रमुख रूप थे—

  • निर्गुण भक्ति तथा
  • सगुण भक्ति।

निर्गुण भक्ति की धारा की भी दो शाखाएँ हो गयी थीं-

  • ज्ञानमार्गी तथा
  • प्रेममार्गी

इसी प्रकार सगुण भक्ति की भी दो शाखाएँ हुईं—

  • रामभक्ति शाखा और
  • कृष्णभक्ति शाखा।

सामान्य विशेषताएँ-

  1. इस काल में प्रमुख रूप से धार्मिक काव्य लिखा गया। कवि राज्याश्रय से मुक्त रहकर सामान्य जीवन व्यतीत करते हुए लोक-मंगल की कामना करते थे। सब ईश्वर के भक्त थे और किसी-न-किसी रूप में उसी की उपासना में लगे रहते थे।
  2. गुरु की महिमा का गान सभी काव्य-धाराओं में किया गया। कबीर ने तो गुरु को ईश्वर से भी उच्च स्थान प्रदान किया है।
  3. इस काल के काव्य में हमें हर क्षेत्र में समन्वय की भावना मिलती है। पारस्परिक भेद-भाव को दूर करके एकरूपता की स्थापना ही इस समन्वय-सिद्धान्त का लक्ष्य बना। सात्विक जीवन पर ही अधिक बल दिया गया।
  4. इस काल में प्रबंध गीत और मुक्तक सभी प्रकार के काव्यों की रचना हुई। कवियों की इस योजना का क्षेत्र व्यापक रहा पर प्रमुख रूप से शान्त और श्रृंगार रस में काव्य लिखा गया। अनुभूतियों की अभिव्यक्ति में सच्चाई और ईमानदारी थी। भावों का आवेश स्वाभाविक एवं सरल-सहज था। इसी कारण भक्तिकाल के काव्य ने तत्कालीन जन-जीवन को तो प्रभावित किया ही, साथ ही वह प्रभावशाली भी बना हुआ है।
  5. इस काल में प्रमुख रूप से ब्रज और अवधी भाषा में काव्य रचना हुई। संत कवियों ने सभी स्थानों की भाषाओं के एक मिले-जुले रूप का प्रयोग किया। निर्गुण-मार्गी, प्रेममार्गी, सूफी कवियों की भाषा अवधी थी। तुलसी ने अपना मानस’ अवधी में लिखा और उसको साहित्यिक बनाने का सफल प्रयत्न किया। रामभक्ति शाखा का काव्य ब्रजभाषा में भी लिखा गया। कृष्णकाव्य भी ब्रजभाषा में ही लिखा गया।

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