वर्णनात्मक निबन्ध 11
वर्णनात्मक निबन्ध
किसी रोचक यात्रा का वर्णन
सम्बद्ध शीर्षक
- मेरे जीवन की अविस्मरणीय घटना
- किसी तीर्थस्थल का वर्णन
- कोई यात्रा संस्मरण
- किसी रोमांचकारी यात्रा का वर्णन
- किसी अविस्मरणीय यात्रा का वर्णन
प्रमुख विचार-विन्दु
- प्रस्तावना,
- यात्रा की योजना,
- यात्रा की पूर्व सन्ध्या,
- मार्ग का वर्णन,
- बद्रीनाथ धाम का वर्णन,
- उपसंहार।
प्रस्तावना – ‘यात्रा’ शब्द इतना आकर्षक है कि ऐसा कौन है, जिसका हृदय इसे सुनकर उत्साह-उमंग से न भर जाए। सच बात तो यह है कि आजीविका हेतु धन अर्जन करते दैनन्दिन जीवन एक ही बँधे-बँधाये ढर्रे पर बिताते-बिताते मन इतना ऊब जाता है कि वह अपने जीवन-चक्र में बदलाव चाहता है। यात्रा इसी इच्छित परिवर्तन का सुखद अवसर प्रस्तुत करती है। साथ ही नये स्थान देखने, नये व्यक्तियों से मिलने एवं नयी भाषा . सुनने का आकर्षण भी कुछ कम प्रबल नहीं होता।
यात्रा की योजना – उत्तर में बदरिकाश्रम हिन्दुओं का अति पवित्र तीर्थस्थल है। नर और नारायण नामक महर्षियों ने यहाँ हजारों वर्षों तक तपस्या करके इस स्थान को विशेष गरिमा प्रदान की है। फिर भगवान् बादरायण (वेदव्यास) ने यहीं गुफा में बैठकर वेदान्त-सूत्रों की रचना की थी। अत: बदरिकाश्रम के दर्शनों की अभिलाषा बहुत दिनों से मन में थी, परन्तु समुद्र से बारह हजार फीट की ऊँचाई पर स्थित यह स्थान अति दुर्गम है। अभी कुछ दशक पूर्व तक यहाँ की यात्रा पैदल ही करनी पड़ती थी। पर आज खास मन्दिर के निकट तक बस या मोटर जाती है; अतः हम मित्रों ने हिम्मत करके बदरिकाश्रम-यात्रा का विचार बनाया।
यात्रा की पूर्व-सन्ध्या – हम लोग बस द्वारा ऋषिकेश पहुँचे। वहाँ मैंने अपने एक सम्बन्धी को पत्र डालकर टैक्सी तय करने का निर्देश पहले ही दे दिया था; अतः ऋषिकेश पहुँचते ही टैक्सी की व्यवस्था पक्की थी। अगले दिन प्रात: ही निकलना था; क्योंकि मालूम हुआ कि लगातार 14 घण्टे की मोटर-यात्रा के बाद ही गन्तव्य स्थल तक उसी दिन पहुँचा जा सकता है, अन्यथा मार्ग में एक दिन रुकना पड़ेगा। इसका एक कारण यह भी है : कि जोशीमठ से ‘वन वे ट्रैफिक’ (एकमार्गीय यातायात) शुरू हो जाता है। ऐसा अवरोध तीन स्थानों पर है, जिससे पर्याप्त समय लग जाता है; अतः एक ही दिन में बदरिकाश्रम पहुँचना तय रहा।
मार्ग का वर्णन – यद्यपि टैक्सी वाले ने पहले ही दिन आकर सुझाव दिया था कि प्रातः 4 बजे निकल पड़ना अच्छा रहेगा, पर हमें निकलते-निकलते छः बज गये, किन्तु नेपाली टैक्सी-ड्राइवर बहुत कुशल था, इसलिए लगातार चढ़ाई के बावजूद उसने हम लोगों को समय पर श्रीनगर पहुँचा दिया। श्रीनगर ऋषिकेश से 96 किलोमीटर दूर है। एक तो प्रातः का समय, दूसरे श्रीनगर तक दोनों ओर के पर्वतों पर पर्याप्त वनस्पति दीख पड़ती है। बीच-बीच में पर्वत से बहकर आने वाले जलस्रोत बड़ा ही मनोरम दृश्य उपस्थित करते हैं। ये जलस्रोत अक्सर मोटर-मार्ग को काटते हुए लगभग तीन हजार फीट नीचे अलकनन्दा नदी में गिरते हैं। इतनी ऊँचाई से अलकनन्दा एक छोटी नहर-जैसी दीख पड़ती है, पर पहाड़ी नदी होने के कारण उसमें दुर्धर्ष वेग है। विशाल शिलाखण्डों से टकराकर उछलता हुआ उसको जल भीषण-ध्वनि उत्पन्न करके हृदयों को भयकम्पित करता है। शीतल वायु, पर्वतीय पुष्पों की सुगन्ध एवं पक्षियों का कलरव; यात्रियों की थकान को मिटाने के साथ-साथ उनका मन मोह लेता है। इस सारे सुरम्य वातावरण के बावजूद एक ऐसी बात भी थी, जो मेरे लिए अतीव कष्टकर थी और वह यह कि टैक्सी बहुत जल्दी-जल्दी मोड़ ले रही थी। कहीं चढ़ाई तो कहीं सीधा उतार। पेट में उथल-पुथल-सी मचने लगी। जैसे-तैसे श्रीनगर पहुँचकर सभी लोगों ने चाय-नाश्ता लिया और तत्काल चल पड़े; क्योकि अभी हमारे सामने लगभग 11 घण्टे की यात्रा शेष थी। टैक्सी ड्राइवर ने बताया कि यदि हम लोग जोशीमठ’ चार बजे तक नहीं पहुँच पाये तो पुलिस वहीं रोक लेगी; क्योंकि जोशीमठ से आगे का मार्ग अत्यधिक दुर्गम और चढ़ाई एकदम खड़ी है; इसलिए चार बजे तक जोशीमठ पहुँचने वाले यात्रियों को ही आगे बढ़ने की अनुमति दी जाती है।
हम लोग श्रीनगर से लगभग साढ़े दस बजे निकल सके। दुर्गम पहाड़ी मार्गों पर भी हमारा कुशल ड्राइवर टैक्सी को उड़ाता ले चला, पर गन्तव्य दूर से दूरतर होता प्रतीत हुआ। इस समय प्रचण्ड धूप सर्वत्र छा गयी थी। 30 जून सन् 2010 ई० का दिन था। भयंकर गर्मी बढ़ती ही जा रही थी, किन्तु श्रीनगर से आगे बढ़ने पर जैसे-जैसे हम ऊँचाई पर चढ़ते गये। हमें गर्मी से तो राहत मिली ही, साथ ही दोनों ओर पहाड़ों की ढालों पर उगी घनी वनस्पति ने हमारा अभिनन्दन भी किया। विशाल वृक्षों की सान्द्र छाया हमारे मार्ग को शीतल, सुखद और सुरम्ये बना रही थी तथा स्थान-स्थान पर हिरनों के झुण्ड और मयूरों के दल हमारे चित्त को आकर्षित कर रहे थे। श्रीनगर से आगे पहाड़ी रास्ता बहुत जल्दी-जल्दी मोड़ ले रहा था। इससे हमारी गति बहुत बाधित हुई, पर साधुवाद है टैक्सी-ड्राइवर को, जिसने चार बजते-बजते हमें जोशीमठ पहुँचा दिया। यदि हमें पाँच मिनट का भी। विलम्ब हो जाता तो रात वहीं बितानी पड़ती।।
अस्तु, जोशीमठ से एकमार्गीय यातायात के कारण हम रुकते-रुकते जैसे-तैसे हनुमान्-चट्टी पहुंचे। यहाँ क़ी शीतले-पवन के स्पर्श से मन प्रफुल्लित हो उठा था। समय भी लगभग छ: का हो गया था। लोगों ने बताया कि यह अन्तिम बस्ती है। यहाँ पर यात्रियों ने गर्म कपड़े पहन लिये; क्योंकि आगे भीषण ठण्ड की आशंका थी। सभी लोग स्तब्ध भाव से बैठे बहुत सँकरी सड़क पर बड़ी तीव्रगति से चढ़ती-उतरती, मोड़ लेती टैक्सी को देख रहे थे, जिसको अनुभवी और कुशल चालक आत्मविश्वासपूर्वक उस झुटपुटे में भी अविराम गति से दौड़ा रहा था। बायीं ओर से पर्वतों की ढालों पर बर्फ की पतली-चौड़ी धाराएँ पिघली चाँदी का भ्रम उत्पन्न करतीं व धीरे-धीरे बहती हुई अलकनन्दा में गिर रही थीं। वायु में ठण्डक बड़ी तेजी से बढ़ती जा रही थी, जिससे गर्म कपड़ों के बावजूद शरीर ठण्ड से काँप रहा था। यह चढ़ाई यात्री के धैर्य और श्रद्धा की अन्तिम परीक्षा है, जिसमें उत्तीर्ण होने पर ही भगवान् बद्रीनाथ के दिव्य-दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हो सकता है। ढाई घण्टे की स्तब्ध करने वाली भीषण चढ़ाई के बाद दिव्य बद्रीनाथ धाम की बिजली की बत्तियाँ चमकती हुई दिखाई दीं। हमें ऐसा प्रतीत हुआ मानो अन्धकार में भटकते प्राणी को प्रकाश दिख गया हो अथवा मृत्यु के मुख से निकलकर कोई सदेह स्वर्ग पहुँच गया हो। हम लोग लम्बी अविराम, किन्तु सुखद यात्रा के बाद गन्तव्य पर पहुँचने के सन्तोष के साथ भारी थकान का अनुभव करते हुए एक होटल के सुविधाजनक कमरे में रुके।
बद्रीनाथ धाम का वर्णन – कमरे की खिड़की को जरा खोलकर देखा तो झिलमिल आलोक में सामने भगवान् के विशाल मन्दिर को उत्तुंग-शिखर अपनी भव्यता से मण्डित दीख पड़ा। साथ ही अत्यधिक शीतल पवन का झोंको रोम-रोम को थरथरा गया, जिससे तत्काल खिड़की बन्द करनी पड़ी। अगले दिन प्रात: मन्दिर के दर्शनों को चले। इससे पूर्व हम लोगों ने गर्म जल से स्नान किया। यह गर्म जल वहाँ के स्थानीय मजदूर बद्रीनाथ-मन्दिर के निकटस्थ गर्म पानी के एक विशाल-कुण्ड से लाकर आठ रुपये पीपे की दर से दे रहे थे। बहुत-से नर-नारी उस कुण्ड में ही स्नान करके मन्दिर के दर्शन कर रहे थे। यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि पास ही बहती अलकनन्दा यद्यपि बर्फ की मोटी चादर से ढकी थी, चारों ओर के हिमशिखरों पर बर्फ के अम्बार लगे थे, हवा की शीतलता से हड्डियाँ तक कॅप-कॅपा रही थीं, पर उस कुण्ड का जल इतना अधिक गर्म था कि उसे शरीर पर सहन करना भी एक समस्या थी। ऐसी मान्यता है कि इसमें स्नान करने वाले व्यक्ति के चर्मरोग दूर हो जाते हैं। बद्रीनाथ धाम में बड़ी भीड़ थी। भारत के कोने-कोने से आये यात्री भक्तिपूर्ण हृदयों से भगवान् बद्रीविशाल का स्तवन कर रहे थे। भगवान् बद्रीनाथ की प्रतिमा बड़ी दिव्य है। घण्टों के घोष, भक्तों के स्तवन, गन्ध-धूप के आमोद (सुगन्ध) एवं दीपों के आलोक से सम्पूर्ण वातावरण गहरी भक्ति-भावना में डूबा लग रहा था। मन्दिर अत्यधिक ऊँचाई पर है, जहाँ तक पत्थर का सोपानमार्ग जाता है। यहाँ एक विशेष बात यह अनुभव हुई कि चार कदम चलने पर ही पैर इतने भारी हो जाते थे, मानो पत्थर के हों। कुछ लोग थोड़ा चलते ही हाँफने लगते थे। इसका कारण बारह हजार फीट की ऊँचाई पर मिलने वाली वायु में ऑक्सीजन की कमी थी। मन्दिर के पास एक विशाल जन-समूह अपने पूर्वजनों का श्राद्ध करने में संलग्न था। शास्त्रों के अनुसार बद्रीनाथ धाम का श्राद्ध सर्वोत्तम है।
उपसंहार – उसी दिन दोपहर को हम लोग वापसी यात्रा पर चल पड़े, जिसमें कोई विशेष असुविधा न हुई। उतार के कारण टैक्सी ने भी मार्ग 11 घण्टे में पूरा कर रात्रि 10 बजे ऋषिकेश पहुँचा दिया। मन सीमा-सड़क संगठन के अभियन्ताओं के लिए प्रशंसा से भर उठा, जिन्होंने ऐसे दुर्गम स्थान पर सड़क बनाकर अपने अद्भुत कौशल का परिचय देते हुए असम्भव को सम्भव कर दिखाया है। यह यात्रा मेरे जीवन की एक अविस्मरणीय घटना बन गयी है।