Chapter 5 विश्वकविः रवीन्द्रः (गद्य – भारती)
परिचय
रवीन्द्रनाथ ठाकुर की मातृभाषा बांग्ला थी। ये अनेक वर्षों तक इंग्लैण्ड में रहे थे। इसलिए इन पर वहाँ की भाषा तथा संस्कृति का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ा था। इन्होंने बांग्ला और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में साहित्य-रचना की है। ये नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले प्रथम भारतीय थे। इनकी रचना ‘गीताञ्जलि’ पर इनको यह पुरस्कार प्राप्त हुआ था। ‘गीजाञ्जलि’ के पश्चात् इनकी दूसरी कृति या निर्माण ‘विश्वभारती है। इसमें प्राचीन भारतीय पद्धति अर्थात् आश्रम पद्धति से शिक्षा दी जाती है। इन्होंने भारतीय और पाश्चात्य संगीत का समन्वय करके संगीत की एक नवीन शैली को जन्म दिया, जिसे ‘रवीन्द्र संगीत’ कहा जाता है। प्रस्तुत पाठ में रवीन्द्रनाथ जी के जीवन-परिचय के साथ-साथ इनकी साहित्यिक एवं सामाजिक उपलब्धियों पर भी प्रकाश डाला गया है।
पाठ-सारांश [2006, 07,08, 11, 12, 13, 15]
प्रसिद्ध महाकवि श्री रवीन्द्रनाथ का बांग्ला साहित्य में वही स्थान है जो अंग्रेजी-साहित्य में शेक्सपीयर का, संस्कृत-साहित्य में कविकुलगुरु कालिदास का और हिन्दी-साहित्य में तुलसीदास का। इनका नाम आधुनिक भारतीय कलाकारों में भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। ये केवल आध्यात्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में ही नहीं, वरन् रचनात्मक साहित्यकार के रूप में भी जाने जाते हैं।
इन्होंने सांस्कृतिक क्षेत्र में संगीत और नृत्य की नवीन रवीन्द्र-संगीत-शैली प्रारम्भ की। शिक्षाविद् के रूप में इनके नवीन प्रयोगात्मक विचारों को प्रतीक ‘विश्वभारती है, जिसमें आश्रम शैली का नवीन शैली के साथ समन्वय है। ये दीन और दलित वर्ग की हीन दशा के महान् सुधारक थे।
वैभव में जन्म रवीन्द्रनाथ का जन्म कलकत्ती नगर में 7 मई, सन् 1861 ईस्वी को एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री देवेन्द्रनाथ एवं माता का नाम श्रीमती शारदा देवी था। इनके पास विपुल अचल सम्पत्ति थी। इनका प्रारम्भिक जीवन नौकर-चाकरों की देख-रेख में बीता। खेल और स्वच्छन्द विहार का समय न मिलने से इनका मन उदास रहता था।
प्रकृति-प्रेम इनके भवन के पीछे एक सुन्दर सरोवर था। उसके दक्षिणी किनारे पर नारियल के पेड़ और पूर्वी तट पर एक बड़ा वट वृक्ष था। रवीन्द्र अपने भवन की खिड़की में बैठकर इस दृश्य को देखकर प्रसन्न होते थे। वे सरोवर में स्नान करने के लिए आने वालों की चेष्टाओं और वेशभूषा को देखते रहते थे। शाम के समय सरोवर के किनारे बैठे बगुलों, हंसों और जलमुर्गों के स्वर को बड़े प्रेम से सुनते थे।
शिक्षा रवीन्द्र की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। इन्होंने घर पर ही बांग्ला के साथ गणित, विज्ञान और संस्कृत का अध्ययन किया। इसके बाद इन्होंने कलकत्ता के ‘ओरियण्टले सेमिनार स्कूल’ और ‘नॉर्मल स्कूल में प्रवेश लिया, लेकिन वहाँ अध्यापकों के स्वेच्छाचरण और सहपाठियों की हीन मनोवृत्तियों तथा अप्रिय स्वभाव को देखकर इनका मन वहाँ नहीं लगा। सन् 1873 ई० में पिता देवेन्द्रनाथ इन्हें अपने साथ हिमालय पर ले गये। वहाँ हिमाच्छादित पर्वत-श्रेणियों और सामने हरे-भरे खेतों को देखकर इनका मन प्रसन्न हो गया। पिता देवेन्द्रनाथ इन्हें प्रतिदिन नवीन शैली में पढ़ाते थे। कुछ समय बाद हिमालय से लौटकर इन्होंने विद्यालय में शिक्षा प्राप्त की।
सत्रह वर्ष की आयु में रवीन्द्र अपने भाई सत्येन्द्रनाथ के साथ कानून की शिक्षा प्राप्त करने के लिए लन्दन गये, परन्तु वहाँ वे बैरिस्टर की उपाधि न प्राप्त कर सके और दो वर्ष बाद ही कलकत्ता लौट आये।
साहित्यिक प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ में साहित्य-रचना की स्वाभाविक प्रतिभा थी। उनके परिवार में घर पर प्रतिदिन गोष्ठियाँ, चित्रकला की प्रदर्शनी, नाटक-अभिनय और देश-सेवा के कार्य होते रहते थे। इन्होंने अनेक कथाएँ और निबन्ध लिखकर उनको ‘भारती’, ‘साधना’, ‘तत्त्वबोधिनी’ आदि पारिवारिक पत्रिकाओं में प्रकाशित कराया।
रचनाएँ इन्होंने शैशव संगीत, प्रभात संगीत, सान्ध्य संगीत, नाटकों में रुद्रचण्ड, वाल्मीकि प्रतिभा (गीतिनाट्य), विसर्जन, राजर्षि, चोखेरबाली, चित्रांगदा, कौड़ी ओकमल, गीताञ्जलि आदि अनेक रचनाएँ लिखीं। इनकी प्रतिभा कथा, कविता, नाटक, उपन्यास, निबन्ध आदि में समान रूप से उत्कृष्ट थी। गीताञ्जलि पर इन्हें साहित्य का ‘नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था।
महात्मा गाँधी जी के प्रेरक गुरु सन् 1932 ई० में गाँधी जी पूना की जेल में थे। अंग्रेजों की हिन्दू-जाति के विभाजन की नीति के विरुद्ध वे जेल में ही आमरण अनशन करना चाहते थे। उन्होंने इसके लिए रवीन्द्र जी से ही अनुमति माँगी और उनको समर्थन प्राप्त करके आमरण अनशन किया। रवीन्द्रनाथ का जीवन उनके काव्य के समान मनोहारी और लोक-कल्याणकारी था। उनकी मृत्यु 7 अगस्त, 1941 ई० को हो गयी थी, लेकिन उनकी वाणी आज भी काव्य रूप में प्रवाहित है।
गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद
(1)
आङ्ग्लवाङ्मये काव्यधनः शेक्सपियर इव, संस्कृतसाहित्ये कविकुलगुरुः कालिदास इव, हिन्दीसाहित्ये महाकवि तुलसीदास इव, बङ्गसाहित्ये कवीन्द्रो रवीन्द्रः केनाविदितः स्यात्। आधुनिक भारतीयशिल्पिषु रवीन्द्रस्य स्थानं महत्त्वपूर्णमास्ते इति सर्वैः ज्ञायत एव। तस्य बहूनि योगदानानि पार्थक्येन वैशिष्ट्यं लभन्ते। न केवलमाध्यात्मिकसांस्कृतिकक्षेत्रेषु तस्य योगदान महत्त्वपूर्णमपितु रचनात्मकसाहित्यकारतयापि तस्य नाम लोकेषु सुविदितमेव सर्वैः।।
शब्दार्थ वाङ्मये = साहित्य में। काव्यधनः = काव्य के धनी। कवीन्द्रः = कवियों में श्रेष्ठ। केनाविदितः = किसके द्वारा विदित नहीं हैं, अर्थात् सभी जानते हैं। आस्ते = है। पार्थक्येन = अलग से। लोकेषु = लोकों में। सुविदितमेव = भली प्रकार ज्ञात है।
सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘विश्वकविः रवीन्द्रः’ शीर्षक पाठ से उधृत है।
[ संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कवीन्द्र रवीन्द्र के महत्त्वपूर्ण योगदानों का उल्लेख किया गया है।
अनुवाद अंग्रेजी-साहित्य में काव्य के धनी शेक्सपियर के समान, संस्कृत-साहित्य में कविकुलगुरु कालिदास के समान, हिन्दी-साहित्य में महाकवि तुलसीदास के समान बांग्ला-साहित्य में कवीन्द्र रवीन्द्र किससे अपरिचित हैं अर्थात् सभी लोगों ने उनका नाम सुना है। आधुनिक भारतीय कलाकारों में रवीन्द्र का स्थान महत्त्वपूर्ण है, यह सभी जानते हैं। उनके बहुत-से योगदान अलग से विशेषता प्राप्त करते हैं। केवल आध्यात्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में ही उनका योगदान महत्त्वपूर्ण नहीं है, अपितु रचनात्मक साहित्यकार के रूप में भी उनका नाम संसार में सबको विदित ही है।
(2)
सांस्कृतिकक्षेत्रे सङ्गीतविधासु नृत्यविधासु च सः नूतनां शैली प्राकटयत्। सा शैली ‘रवीन्द्र सङ्गीत’ नाम्ना ख्यातिं लभते। एवं नृत्यविधासु परम्परागतशैलीमनुसरताऽनेन शिल्पिना नवीना नृत्यशैली आविष्कृता। अन्यक्षेत्रेष्वपि शिक्षाविद्रूपेण तेन नवीनानां विचाराणां सूत्रपातो विहितः। तेषां प्रयोगात्मकविचाराणां पुजीभूतः निरुपमः प्रासादः ‘विश्वभारती’ रूपेण सुसज्जितशिरस्कः राजते। यत्र आश्रमशैल्याः नवीनशैल्या साकं समन्वयो वर्तते। दीनानां दलितवर्गाणां दशासमुद्धर्तृरूपेणाऽसौ अस्माकं भारतीयानां पुरः प्रस्तुतोऽभवत्।
शब्दार्थ सांस्कृतिकक्षेत्रे = संस्कृति से सम्बद्ध क्षेत्र में विधासु = विधाओं में, प्रकारों में। प्राकटयत् = प्रकट की। ख्याति = प्रसिद्धि को। अनुसरता = अनुसरण करते हुए। आविष्कृता = खोज की। शिक्षाविद्रूपेण = शिक्षाशास्त्र के ज्ञाता के रूप में। पुञ्जीभूतः = एकत्र, समूह बना हुआ। प्रासादः = महला सुसज्जितशिरस्कः = भली-भाँति सजे हुए सिर वाला। साकं = हाथा समन्वयः = ताल-मेल। समुद्धर्तृरूपेण असौ = उद्धार करने वाले के रूप में यह पुरः = सामने।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश-द्वय में रवीन्द्र जी के सांस्कृतिक और शिक्षा के क्षेत्र में योगदान का उल्लेख किया गया है।
अनुवाद सांस्कृतिक क्षेत्र में संगीत-विधा और नृत्य-विधाओं में उन्होंने नवीन शैली प्रकट की। वह शैली ‘रवीन्द्र-संगीत’ के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त है। इस प्रकार नृत्य-विधाओं में परम्परागत शैली का अनुसरण करते हुए इस कलाकार ने नवीन नृत्य शैली का आविष्कार किया। दूसरे क्षेत्रों में भी शिक्षाविद् के रूप में नवीन विचारों का सूत्रपात किया। उनके प्रयोगात्मक विचारों का एकत्रीभूत स्वरूप अनुपम भवन ‘विश्वभारती के रूप में सजे हुए सिर वाला होकर सुशोभित है, जहाँ पर आश्रम शैली का नवीन शैली के साथ समन्वय है। दीनों और दलित वर्गों की दशा के सुधारक के रूप में वे हम भारतीयों के सामने प्रस्तुत थे।
(3)
रवीन्द्रनाथस्य जन्म कलिकातानगरे एकषष्ट्यधिकाष्टादशशततमे खीष्टाब्दे मईमासस्य सप्तमे दिवसे (7 मई, 1861) अभवत्। अस्य जनकः देवेन्द्रनाथः, जननी शारदा देवी चास्ताम्। रवीन्द्रस्य जन्म एकस्मिन् सम्भ्रान्ते समृद्धे ब्राह्मणकुले जातम्। यस्य सविधे अचला विशाला सम्पत्तिरासीत्। अतो भृत्यबहुलं भृत्यैः परिपुष्टं संरक्षितं जीवनं बन्धनपूर्णमन्वभवत्। अतः स्वच्छन्दविचरणाय, क्रीडनाय सुलभोऽवकाशः नासीत्तेन मनः खिन्नमेवास्त।
रवीन्द्रनाथस्य जन्म ………………………………………………….. बन्धनपूर्णमन्वभवत्।।
शब्दार्थ एकषष्ट्यधिकोष्टादशशततमे = अठारह सौ इकसठ में। ख्रीष्टाब्दे = ईस्वी में। आस्ताम् = थे। सम्भ्रान्ते = सम्भ्रान्त। धनिके = धनी। सविधे = पास में। अचला = जो न चल सके। भृत्यबहुलं = नौकरों की अधिकता वाले। परिपुष्टं = सभी प्रकार से पुष्ट हुए। बन्धनपूर्णमन्वभवत् = बन्धनपूर्ण अनुभव हुआ। नासीत्तेन = नहीं था, इस कारण से। खिन्नमेवास्त = दुःखी ही था।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्र के वैभवसम्पन्न प्रारम्भिक जीवन का वर्णन किया गया है।
अनुवाद रवीन्द्रनाथ का जन्म कलकत्ता नगर में सन् 1861 ईस्वी में मई मास की 7 तारीख को हुआ था। इनके पिता देवेन्द्रनाथ और माता शारदा देवी थीं। रवीन्द्र का जन्म एक सम्भ्रान्त और समृद्ध ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पास विशाल अचल सम्पत्ति थी; अतः उन्होंने नौकरों की अधिकता से पूर्ण, सेवकों से पुष्टे किये गये, देखभाल किये गये जीवन को बन्धनपूर्ण अनुभव किया। इसलिए स्वच्छन्द विचरण के लिए, खेलने के लिए उनके पास इच्छित समय नहीं था, इस कारण से उनका मन दुःखी रहता था। (4) वैभवशालिभवनस्य पृष्ठभागे एकं कमनीयं सरः आसीत्। यस्य दक्षिणतटे नारिकेलतरूणां पङ्क्ति राजते स्म। पूर्वस्मिन् तटे जटिलस्तपस्वी इव महान् जीर्णः पुरातनः एकः वटवृक्षोऽनेकशाखासम्पन्नोऽन्तरिक्षं परिमातुमिव समुद्यतः आसीत्।। भवनस्य वातायने समुपविष्टः बालकः दृश्यमिदं दशैं दशैं परां मुदमलभत। अस्मिन्नेव सरसि तत्रत्याः निवासिनः यथासमयं स्नातुमागत्य स्नानञ्च कृत्वा यान्ति स्म। तेषां परिधानानि विविधाः क्रियाश्च दृष्ट्वा बालः किञ्चित्कालं प्रसन्नः अजायत। मध्याह्वात् पश्चात् सरोवरेः शून्यतां भजति स्म। सायं पुनः बकाः हंसाः जलकृकवाकवः विहंगाः कोलहलं कुर्वाणाः स्थानानि लभन्ते स्म। तस्मिन् काले इदमेव कम्न सरः बालकस्य मनोरञ्जनमकरोत् । [2015]
वैभवशालिभवनस्य ………………………………………………….. समुद्यतः आसीत् ।।
भवनस्य वातायने ………………………………………………….. शून्यतां भजति स्म
भवनस्य वातायने ………………………………………………….. मनोरञ्जनमकरोत् । [2012]
शब्दार्थ वैभवशालिभवनस्य = ऐश्वर्य सामग्री से परिपूर्ण भवन के पृष्ठभागे = पिछले भाग में। कमनीयम् = सुन्दर। राजते स्म = सुशोभित थी। जटिलस्तपस्वी = जटाधारी तपस्वी। जीर्णः = पुराना। वटवृक्षः = बरगद का पेड़। परिमातुम् = मापने के लिए। समुद्यतः = तत्पर। वातायने = खिड़की में। समुपविष्टः = बैठा हुआ। परां मुदम् = अत्यन्त प्रसन्नता को। स्नातुं आगत्य = नहाने के लिए आकर। कृत्वा = करके। परिधानानि = वस्त्र। दृष्ट्वा = देखकर। शून्यतां भजति स्म = सूना हो जाता था। जलकृकवाकवः = जल के मुर्गे। कम्रम् =सुन्दर।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्र के प्रकृति-प्रेम का मनोहारी वर्णन किया गया है।
अनुवाद वैभवपूर्ण भवन के पिछले भाग में एक सुन्दर तालाब था। जिसके दक्षिण किनारे पर नारियल के वृक्षों की पंक्ति सुशोभित थी। पूर्वी किनारे पर जटाधारी तपस्वी के समान बड़ा, बहुत पुराना एक वट का वृक्ष था। अनेक शाखाओं से सम्पन्न वह (वृक्ष) मानो आकाश को मापने के लिए तैयार था। भवन की खिड़की में बैठा हुआ बालक (रवीन्द्र) इस दृश्य को देख-देखकर अत्यन्त प्रसन्नता प्राप्त करता था। इसी सरोवर में वहाँ के निवासी समयानुसार स्नान के लिए आते और स्नान करके जाते थे। उनके वस्त्रों और विविध क्रियाओं को देखकर बालक कुछ समय के लिए प्रसन्न हो जाता था। दोपहर के बाद सरोवर निर्जन (जन-शून्य) हो जाता था। शाम को फिर बगुले, हंस, जलमुर्गे, पक्षी कोलाहल करते हुए (अपना-अपना) स्थान प्राप्त कर लेते थे। उस समय यही सुन्दर सरोवर बालक (रवीन्द्र) का मनोरंजन करता था।
(5)
शिक्षा-रवीन्द्रस्य प्राथमिकी शिक्षा गृहे एव जाता। शिक्षणं बङ्गभाषायं प्रारभत। प्रारम्भिकं विज्ञानं, संस्कृतं, गणितमिति त्रयो पाठ्यविषयाः अभूवन्। प्रारम्भिकगृहशिक्षायां समाप्तायां बालकः उत्तरकलिकातानगरस्य ओरियण्टल सेमिनार विद्यालये प्रवेशमलभत्। तदनन्तरं नार्मलविद्यालयं गतवान् परं कुत्रापि मनो न रमते स्म। सर्वत्र अध्यापकानां स्वेच्छाचरणं सहपाठिनां तुच्छारुचीः अप्रियान् स्वभावांश्च विलोक्य मनो न रेमे। अतः शून्यायां घटिकायां मध्यावकाशेऽपि च ऐकान्तिकं जीवनं बालकाय रोचते स्म। बालकस्य मनः विद्यालयेषु न रमते इति विचिन्त्य जनको देवेन्द्रनाथः त्रिसप्तत्यधिकाष्टादशशततमे खीष्टाब्दे (1873) सूनोरुपनयनसंस्कारं विधाय तं स्वेन सार्धमेव हिमालयमनयत्। तत्र पितुः सम्पर्केण बालकस्य मनः स्वच्छतामभजत्। तत्रत्यस्य भवनस्य पृष्ठभागे हिमाच्छादिताः पर्वतश्रेणयः आसन्। भवनाभिमुखं शोभनानि सुशाद्वलानि क्षेत्राणि राजन्ते स्म। अत्रत्यं प्राकृतिकं जीवनं बालकस्य मनो नितरामरमयत्। जनको देवेन्द्रनाथः प्रतिदिवसं नवीनया पद्धत्या पाठयति स्म। पितुः पाठनशैली बालकाय रोचते स्म। कालान्तरं हिमालयात् प्रतिनिवृत्य पुनः विद्यालयीयां शिक्षा लेभे।
प्रारम्भिक गृहशिक्षायां ………………………………………………….. रोचते स्म। [2006]
शब्दार्थ प्रारभत = प्रारम्भ हुआ। प्रवेशमलेभत्=प्रवेश प्राप्त किया। कुत्रापि= कहीं भी। नरमते स्म = नहीं लगता था। स्वेच्छाचरणं = अपनी इच्छा के अनुकूल (स्वतन्त्र) आचरण। तुच्छारुचीः = खराब आदतें। रेमे =रमा, लगा। शून्यायां घटिकायां = खाली घेण्टे में। ऐकान्तिकं = एकान्त से सम्बन्धित। त्रिसप्तत्यधिकाष्टादशशततमे = अठारह सौ तिहत्तर में। सूनोरुपनयनसंस्कारं (सूनोः + उपनयन संस्कारं)= पुत्र का यज्ञोपवीत संस्कार। विधाय= करके। स्वेन सार्धम्=अपने साथ। तत्रत्यस्य= वहाँ के। सुशाद्वलानि=सुन्दर घास से युक्त। राजन्ते स्म = सुशोभित थे। नितराम् = अत्यधिक। अरमयत् = रम गया। प्रतिनिवृत्य = वापस लौटकर। लेभे = प्राप्त किया।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में बालक रवीन्द्र का पढ़ने में मन न लगने एवं पिता के साथ हिमालय पर जाकर पढ़ने का वर्णन है।
अनुवाद रवीन्द्र की प्राथमिक शिक्षा घर पर ही हुई। पढ़ाई बांग्ला भाषा में प्रारम्भ हुई। प्रारम्भ में विज्ञान, संस्कृत और गणित ये तीन पाठ्य-विषय थे। प्रारम्भिक गृह-शिक्षा समाप्त होने पर बालक ने उत्तरी कलकत्ता नगर के ‘ओरियण्टल सेमिनार स्कूल में प्रवेश लिया। इसके बाद नॉर्मल विद्यालय में गया, परन्तु कहीं भी (उसका) मन नहीं लगता था। सब जगह अध्यापकों के स्वेच्छाचरण, सहपाठियों की तुच्छ इच्छाओं और बुरे स्वभावों को देखकर (इनका) मन नहीं लगा। इसलिए खाली घण्टे और मध्य अवकाश में भी बालक को एकान्त का जीवन अच्छा लगता था। बालक का मन विद्यालयों में नहीं लगता है-ऐसा सोचकर पिता देवेन्द्रनाथ सन् 1873 ईस्वी में पुत्र का उपनयन संस्कार कराके उसे अपने साथ ही हिमालय पर ले गये। वहाँ पिता के सम्पर्क से बालक का मन स्वस्थ हो गया। वहाँ के भवन के पिछले भाग में बर्फ से ढकी पर्वत-श्रेणियाँ थीं। भवन के सामने सुन्दर हरी घास से युक्त खेत सुशोभित थे। यहाँ के प्राकृतिक जीवन ने बालक के मन को बहुत प्रसन्न कर दिया। पिता देवेन्द्रनाथ प्रतिदिन नवीन पद्धति द्वारा पढ़ाते थे। पिता की पाठन-शैली बालक को अच्छी लगती थी। कुछ समय पश्चात् हिमालय से लौटकर पुन: विद्यालयीय शिक्षा प्राप्त की।
(6)
सप्तदशवर्षदेशीयो रवीन्द्रनाथः अष्टसप्तत्यधिकाष्टादशशततमे ख्रीष्टाब्दे सितम्बरमासे भ्रात्रा न्यायाधीशेन सत्येन्द्रनाथेन सार्धं विधिशास्त्रमध्येतुं लन्दननगरं गतवान्। दैवयोगाद् रवीन्द्रस्य बैरिस्टरपदवी पूर्णतां नागात्। सः पितुराज्ञया भ्रात्रा सत्येन्द्रनाथेन साकम् अशीत्यधिकाष्टादशशततमे खीष्टाब्दे (1880) फरवरीमासे लन्दननगरात् कलिकातानगरमायातः। इङ्ग्लैण्डदेशस्य वर्षद्वयावासे पाश्चात्यसङ्गीतस्य सम्यक् परिचयस्तेन लब्धः।
शब्दार्थ सप्तदशवर्षदेशीयो = सत्रह वर्षीय। अष्टसप्तत्यधिकोष्टादशशततमे = अठारह सौ अठहत्तर में। विधिशास्त्रम् = न्याय-शास्त्र, कानून शास्त्र। अध्येतुम् = पढ़ने के लिए। पूर्णतां नागात् = पूर्णता को प्राप्त नहीं हुई। सम्यक् = अच्छी तरह।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्रनाथ द्वारा लन्दन जाने और वकालत की शिक्षा प्राप्त न करने का वर्णन किया गया है।
अनुवाद सत्रह वर्ष की अवस्था में रवीन्द्रनाथ सन् 1878 ईस्वी में सितम्बर महीने में भाई न्यायाधीश सत्येन्द्रनाथ के साथ न्याय-शास्त्र (वकालत) पढ़ने के लिए लन्दन नगर गये। दैवयोग से रवीन्द्र की बैरिस्टर की उपाधि पूर्ण नहीं हुई। वे पिता की आज्ञा से भाई सत्येन्द्रनाथ के साथ सन् 1880 ईस्वी में फरवरी के महीने में लन्दन नगर से कलकत्ता नगर आ गये। इंग्लैण्ड देश के दो वर्ष के निवास में उन्होंने पाश्चात्य संगीत का अच्छी तरह ज्ञान प्राप्त कर लिया।
(7)
साहित्यिक प्रतिभायाः विकासः-रवीन्द्रस्य साहित्यिकरचनायां नैसर्गिकी नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा तु प्रधानकारणमासीदेव। परं तत्रत्या पारिवारिकपरिस्थितिरपि विशिष्टं कारणमभूत्। यथा—गृहे। प्रतिदिनं साहित्यिकं वातावरणं, कलासाधनायाः गतिविधयः, नाटकानां मञ्चनानि, सङ्गीतगोष्ठ्यः, चित्रकलानां प्रदर्शनानि, देशसेवाकर्माणि सदैव भवन्ति स्म। किशोरावस्थायामेव रवीन्द्रः अनेकाः कथाः निबन्धाश्च लिखित्वा पारिवारिकपत्रिकासु भारती-साधना-तत्त्वबोधिनीषु मुद्रयति स्म। [2013]
शब्दार्थ नैसर्गिकी = स्वाभाविक नवनवोन्मेषशालिनी = नये-नये विकास वाली प्रतिभा = रचनाबुद्धि। कलासाधनायाः = कला-साधना की। गोष्ठ्यः = गोष्ठियाँ। मुद्रयति स्म = छपवाते थे।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्रनाथ की साहित्यिक रुचि एवं रचनात्मक प्रवृत्ति का वर्णन किया गया है।
अनुवाद रवीन्द्र की साहित्यिक रचना में स्वाभाविक नये-नये विकास वाली प्रतिभा तो प्रधान कारण थी ही, परन्तु वहाँ की पारिवारिक परिस्थिति भी विशेष कारण थी; जैसे—घर में प्रतिदिन साहित्यिक वातावरण, कला–साधना की गतिविधियाँ, नाटकों का अभिनय, संगीत-गोष्ठियाँ, चित्रकलाओं का प्रदर्शन, देश-सेवा के कार्य सदा होते थे। किशोर अवस्था में ही रवीन्द्र अनेक कथाओं और निबन्धों को लिखकर पारिवारिक पत्रिकाओं ‘भारती’, ‘साधना’, ‘तत्त्वबोधिनी’ में छपवाते थे।
(8)
तेन च शैशवसङ्गीतम्, सान्ध्यसङ्गीतम्, प्रभातसङ्गीतम्, नाटकेषु रुद्रचण्डम्, वाल्मीकि-प्रतिभा गीतिनाट्यम्, विसर्जनम्, राजर्षिः, चोखेरबाली, चित्राङ्गदा, कौडी ओकमल, गीताञ्जलिः इत्यादयो बहवः ग्रन्थाः विरचिताः। गीताञ्जलिः वैदेशिकैः नोबलपुरस्कारेण पुरस्कृतश्च। एवं बहूनि प्रशस्तानि पुस्तकानि बङ्गसाहित्याय प्रदत्तानि। कवीन्द्ररवीन्द्रस्य प्रतिभा कथासु, कवितासु, नाटकेषु, उपन्यासेषु, निबन्धेषु समानरूपेण उत्कृष्टा दृश्यते। सत्यमेव गीताञ्जलिः चित्राङ्गदा च कलादृष्ट्या महाकवेरुभेऽपि रचने वैशिष्ट्यमावहतः।।
शब्दार्थ विरचिताः = लिखे। पुरस्कृतः = पुरस्कृत, पुरस्कार प्राप्त, सम्मानित किया। प्रशस्तानि = प्रशंसनीय। प्रदत्तानि = दिये। उत्कृष्टा = श्रेष्ठ, उन्नत उभेऽपि = दोनों ही। वैशिष्ट्यमावहतः = विशेषता धारण करते हैं।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्रनाथ की साहित्यिक कृतियों का विवरण दिया गया है।
अनुवाद उन्होंने (रवीन्द्रनाथ ने) शैशव संगीत, सान्ध्य संगीत, प्रभात संगीत, नाटकों में रुद्रचण्ड, वाल्मीकि-प्रतिभा (गीतिनाट्य), विसर्जन, राजर्षि, चोखेरबाली, चित्रांगदा, कौड़ी ओकमल, गीताञ्जलि इत्यादि बहुत-से ग्रन्थों की रचना की। गीताञ्जलि को विदेशियों ने नोबेल पुरस्कार से पुरस्कृत किया है। इस प्रकार बहुत-सी सुन्दर पुस्तकें उन्होंने बांग्ला-साहित्य को प्रदान कीं। कवीन्द्र रवीन्द्र की प्रतिभा कथाओं में, कविताओं में, नाटकों में, उपन्यासों और निबन्धों में समान रूप से उत्कृष्ट दिखाई देती है। वास्तव में महाकवि की दोनों ही रचनाएँ गीताञ्जलि और चित्रांगदा कला की दृष्टि से विशिष्टता को धारण करती हैं।
(9)
द्वात्रिंशदधिकैकोनविंशे शततमे खीष्टाब्दे महात्मागान्धी पुणे कारागारेऽवरुद्धः आसीत्। ब्रिटिशशासकाः अनुसूचितजातीयानां सवर्णहिन्दूजातीयेभ्यः पृथक् निर्वाचनाय प्रयत्नशीलाः आसन्।
यस्य स्पष्टमुद्देश्यं हिन्दूजातीयानां परस्परं विभाजनमासीत्। बहुविरोधे कृतेऽपि ब्रिटिशशासकाः शान्ति ने लेभिरे विभाजयितुं च प्रयतमाना एवासन्। तदा महात्मागान्धी हिन्दूजातिवैक्यं स्थापयितुं कारागारे आमरणम् अनशनं प्रारभत। गुरुदेवस्य रवीन्द्रनाथस्य चानुमोदनमैच्छत्। यतश्च महात्मागान्धी गुरुदेवस्य रवीन्द्रस्य केवलमादरमेव नाकरोत्, अपि तु यथाकालं समीचीनसम्मत्यै मुखमपि ईक्षते स्म। महात्मा एनं कवीन्द्र रवीन्द्र गुरुममन्यता रवीन्द्रनाथः तन्त्रीपत्रे ‘भारतस्य एकतायै सामाजिकाखण्डतायै च अमूल्य-जीवनस्य बलिदानं सर्वथा समीचीनं, परं जनाः दारुणायाः विपत्तेः गान्धिनः जीवनमभिरक्षेयुः इति लिखित्वा प्रत्युदतरत्। रवीन्द्रः आमरणस्य अनशनस्य समर्थनमेव न कृतवानपि तु प्रायोपवेशने प्रारब्धे पुणे कारागारञ्चागतवान्।
शब्दार्थ द्वात्रिंशदधिकैकोनविंशे शततमे = उन्नीस सौ बत्तीस में अवरुद्धः = बन्दा स्पष्टमुद्देश्यं = स्पष्ट उद्देश्य। लेभिरे = प्राप्त कर रहे थे। समीचीनम् = उचित| मुखमपि ईक्षते स्म = मुख की ओर देखते थे, अपेक्षा करते थे। तन्त्रीपत्रे = तार (टेलीग्राम) में। अभिरक्षेयुः = रक्षा करें। प्रत्युदतरत् = उत्तर दिया। प्रायोपवेशने = अनशन के समय।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में महात्मा गाँधी द्वारा कवीन्द्र रवीन्द्र को गुरु मानने एवं उनसे सम्मति लेने का वर्णन किया गया है।
अनुवाद सन् 1932 ईस्वी में महात्मा गाँधी पुणे में जेल में बन्द थे। ब्रिटिश शासक अनुसूचित जाति वालों का सवर्ण हिन्दू जाति वालों से अलग निर्वाचन कराने के लिए प्रयत्न में लगे थे, जिसका स्पष्ट उद्देश्य हिन्दू जाति वालों का आपस में बँटवारा करना था। बहुत विरोध करने पर भी अंग्रेजी शासक शान्ति को प्राप्त न हुए। अर्थात् अपने प्रयासों को बन्द नहीं किया और (देश एवं हिन्दू जाति को) विभाजित करने के लिए प्रयत्नशील रहे। तब महात्मा गाँधी ने हिन्दू जातियों में एकता स्थापित करने के लिए जेल में आमरण अनशन प्रारम्भ कर दिया और गुरुदेव रवीन्द्रनाथ के अनुमोदन की इच्छा की; क्योंकि महात्मा गाँधी गुरुदेव रवीन्द्रनाथ का केवल आदर ही नहीं करते थे, अपितु समयानुसार सही सलाह के लिए उनसे अपेक्षा भी करते थे। महात्मा इन कवीन्द्र रवीन्द्र को गुरु मानते थे। रवीन्द्रनाथ ने तार में भारत की एकता और सामाजिक अखण्डता के लिए अमूल्य जीवन का बलिदान सभी प्रकार से सही है, परन्तु लोग भयानक विपत्ति से गाँधी जी के जीवन की रक्षा करें” लिखकर उत्तर दे दिया। रवीन्द्र ने आमरण अनशन का समर्थन ही नहीं किया, अपितु उपवास के प्रारम्भ होने पर पुणे जेल में आ गये।
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एवं बहुवर्णिकं, गरिमामण्डितं साहित्यिक, सामाजिकं, दार्शनिकं, लोकतान्त्रिकं जीवनं तस्य काव्यमिव मनोहारि सर्वेभ्यः कल्याणकारि प्रेरणादायि चाभूत्। एकचत्वारिंशदधिकैकोनविंशे शततमे खीष्टाब्देऽगस्तमासस्य सप्तमे दिनाङ्के (7 अगस्त, 1941) रवीन्द्रस्य पार्थिव शरीरं वैश्वानरं प्राविशत्। अद्यापि गुरुदेवस्य रवीन्द्रस्य वाक् काव्यरूपेण अस्माकं समक्षं स्रोतस्विनी इव सततं प्रवहत्येव। अधुनापि करालस्य कालस्य करोऽपि वाचं मूकीकर्तुं नाशकत्।
जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः ।
नास्ति येषां यशःकाये जरामरणजं भयम् ॥
शब्दार्थ बहुवर्णिकम् = बहुरंगी, अनेक प्रकार का। गरिमामण्डितम् = गरिमा (गौरव) से युक्त। एकचत्वारिंशदधिकैकोनविंशे शततमे = उन्नीस सौ इकतालिस में। पार्थिवम् = मिट्टी से बना, भौतिक वैश्वानरम् = अग्नि में। प्राविशत = प्रविष्ट हुआ। वाक् = वाणी। स्रोतस्विनी इव = नदी के समान। प्रवहत्येव = बहती ही है। वाचं मूकीकर्तुम् = वाणी को मौन करने के लिए। नाशकत् = समर्थ नहीं हुआ। सुकृतिनः = सुन्दर कार्य करने वाले रससिद्धाः = रस है सिद्ध जिनको। कवीश्वराः = कवियों में ईश्वर अर्थात् कवि श्रेष्ठ| यशःकाये = यशरूपी शरीर में जरामरणजे = वृद्धावस्था और मृत्यु से उत्पन्न।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कवीन्द्र रवीन्द्र के जीवन का मूल्यांकन किया गया है, उनके देहान्त की बात कही गयी है और सुन्दर रचनाकार के रूप में उनके यश का गान किया गया है।
अनुवाद इस प्रकार उनका बहुरंगी, गरिमा से मण्डित, साहित्यिक, सामाजिक, दार्शनिक, लोकतान्त्रिक जीवन उनके काव्य के समान सुन्दर, सबके लिए कल्याणकारी और प्रेरणाप्रद था। सन् 1941 ईस्वी में अगस्त महीने की 7 तारीख को रवीन्द्र का पार्थिव शरीर अग्नि में प्रविष्ट हो गया। आज भी गुरुदेव रवीन्द्र की वाणी काव्य के रूप में हमारे सामने नदी के समान निरन्तर बह रही है। आज भी भयानक मृत्यु का हाथ भी (उनकी) वाणी को चुप करने में समर्थ नहीं हो सका। पुण्यात्मा, रससिद्ध वे कवीश्वर जयवन्त होते हैं, जिनके यशरूपी शरीर में बुढ़ापे और मृत्यु से उत्पन्न भय नहीं है। इसलिए कविगण हमेशा यशरूपी शरीर से ही जीवित रहते हैं।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचना ‘गीताञ्जलि’ पर प्रकाश डालिए।
या
‘गीताञ्जलि’ के रचयिता का नाम लिखिए। [2006,07,14]
या
विश्वकवि रवीन्द्र की सबसे प्रसिद्ध रचना कौन-सी है? [2011]
या
रवीन्द्रनाथ को नोबेल पुरस्कार किस रचना पर मिला? [2007]
या
रवीन्द्रनाथ को किस पुस्तक पर कौन-सा पुरस्कार दिया गया था? [2010]
उत्तर :
गीताञ्जलि महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा बांग्ला भाषा में लिखे गये गीतों का संकलन है। यह महाकवि की एक अत्यधिक विशिष्ट रचना है। इसका अंग्रेजी अनुवाद; जो कि स्वयं रवीन्द्रनाथ के द्वारा ही। किया गया; को सन् 1913 ईस्वी में विदेशियों द्वारा ‘नोबेल पुरस्कार’ से पुरस्कृत किया गया।
प्रश्न 2.
विश्वकवि रवीन्द्र का संक्षिप्त जीवन-परिचय दीजिए।
या
विश्वकवि रवीन्द्र का परिचय दीजिए। या कविवर रवीन्द्र का जन्म कब और कहाँ हुआ था? [2008]
या
विश्वकवि रवीन्द्र के माता-पिता का नाम लिखिए। [2010, 12, 13]
या
कवीन्द्ररवीन्द्र की प्रमुख रचनाओं/कृतियों के नाम लिखिए। [2006,08, 10]
उत्तर :
रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई, सन् 1861 ईस्वी में कलकत्ता नगर के एक सम्भ्रान्त और समृद्ध ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम देवेन्द्रनाथ तथा माता का नाम शारदा देवी था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। बाद में इन्होंने स्कूल में प्रवेश ले लिया, लेकिन वहाँ इनका मन नहीं लगा। 17 वर्ष की अवस्था में ये अपने बड़े भाई के साथ इंग्लैण्ड गये। वहाँ इन्होंने दो वर्ष के निवास में पाश्चात्य संगीत का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया। इन्होंने शैशव संगीत, प्रभात संगीत, सान्ध्य संगीत (गीति काव्य); रुद्रचण्ड, वाल्मीकि-प्रतिभा (गीति नाट्य), विसर्जन, राजर्षि, चोखेरबाली, चित्रांगदा, कौड़ी ओकमल, गीताञ्जलि इत्यादि बहुत-से ग्रन्थों की रचना की। महात्मा गाँधी इन्हें अपना गुरु मानते थे। सन् 1941 ईस्वी में 7 अगस्त को इनका पार्थिव शरीर पंचतत्त्व में विलीन हो गया।
प्रश्न 3.
रवीन्द्रनाथ टैगोर के सांस्कृतिक और शिक्षा के क्षेत्र में योगदान का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सांस्कृतिक क्षेत्र में संगीत और नृत्य विधाओं में एक नवीन शैली का प्रचलन किया, जिसे रवीन्द्र-शैली के नाम से जाना जाता है। एक शिक्षाविद् के रूप में भी इन्होंने नवीन विचारों का प्रारम्भ किया। इनके विचारों का पुंजस्वरूप भवन ‘विश्वभारती के रूप में हमारे समक्ष विद्यमान है। यहाँ पर शिक्षा की आश्रम शैली, नवीन शैली के साथ समन्वित रूप में विद्यमान है।
प्रश्न 4.
विश्वकवि रवीन्द्र के बाल्य-जीवन का उल्लेख कीजिए। या* * बचपन में बालक रवीन्द्रनाथ का मेन क्यों खिन्न रहता था? [2009]
उत्तर :
रवीन्द्रनाथ का जन्म अतुल धनराशि तथा वैभव से सम्पन्न एक अत्यधिक धनाढ्य ब्राह्मण परिवार में हुआ था। सेवकों द्वारा पालित, पोषित और रक्षित होने के कारण ये अपने जीवन को बन्धनपूर्ण मानते थे। स्वतन्त्रतापूर्वक घूमने और खेलने का अवसर न मिलने के कारण ये पर्याप्त खिन्नता का अनुभव करते थे। इनके वैभवशाली भवन के पीछे एक सुन्दर सरोवर था जिसके एक ओर नारियल के वन और दूसरी ओर बरगद का वृक्ष था। भवन के झरोखे में बैठकर रवीन्द्रनाथ इस प्राकृतिक दृश्य को देखकर बहुत प्रसन्न होते थे। प्रात:काल के समय सरोवर में स्त्री-पुरुष स्नान के लिए आते थे। उनकी विविध रंग-बिरंगी पोशाकों को देखकर बालक रवीन्द्रनाथ प्रसन्न हो जाते थे। सायंकाल में यह सरोवर पक्षियों की चहचहाहट से गुंजित हो उठता था। यह सब कुछ बालक रवीन्द्रनाथ को बहुत सुखद प्रतीत होता था।
प्रश्न 5.
‘विश्वकवि’ संज्ञा किस आधुनिक कवि को दी गयी है? [2010,11]
उत्तर :
‘विश्वकवि’ संज्ञा आधुनिक कवि श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर को दी गयी है।
प्रश्न 6.
विधिशास्त्र का अध्ययन करने के लिए रवीन्द्रनाथ किसके साथ और कहाँ गये? [2006]
उत्तर :
विधिशास्त्र का अध्ययन करने के लिए रवीन्द्रनाथ अपने बड़े भाई न्यायाधीश सत्येन्द्रनाथ के साथ सन् 1878 ई० में लन्दन गये।
प्रश्न 7.
विश्वकवि रवीन्द्र की तुलना किन-किन कवियों से की गयी है? [2010]
उत्तर :
विश्वकवि रवीन्द्र की तुलना अंग्रेजी कवि शेक्सपियर, संस्कृत कवि कालिदास और हिन्दी कवि गोस्वामी तुलसीदास से की गयी है।
प्रश्न 8.
‘विश्वभारती’ का परिचय दीजिए। [2009]
उत्तर :
एक शिक्षाविद् के रूप में रवीन्द्रनाथ ने नवीन विचारों का सूत्रपात किया था। उनके प्रयोगात्मकशिक्षात्मक विचारों का प्रतिफल विश्वभारती के रूप में अपना मस्तक उन्नत किये हुए आज भी सुशोभित हो रहा है। इस संस्था में अध्ययन-अध्यापन की आश्रम-व्यवस्था तथा नवीन शैली का समन्वय है।।
प्रश्न 9.
विश्वकवि रवीन्द्र की साहित्यिक प्रतिभा का परिचय दीजिए।
उत्तर :
[ संकेत ‘पाठ-सारांश’ के उपशीर्षकों’ ‘साहित्यिक प्रतिभा के धनी’ एवं ‘रचनाएँ की सामग्री को संक्षेप में लिखें।]