Chapter 7 महर्षिर्दयानन्दः
गद्यांशों का सन्दर्भ-सहित हिन्दी अनुवाद
गद्यांश 1
सौराष्ट्रप्रान्ते टङ्कारानाम्नि ग्रामे श्रीकर्षणतिवारीनाम्नो धनाढ्यस्य
औदीच्यविप्रवंशीयस्य धर्मपत्नी शिवस्य पार्वतीव भाद्रमासे नवम्यां तिथौ गुरुवासरे
मूलनक्षत्रे एकाशीत्युत्तराष्टादशशततमे (1881) वैक्रमाब्दे पुत्ररत्नमजनयत्।।
जन्मतः दशमे दिने ‘शिवं भजेदयम्’ इति बुद्धया पिता स्वसुतस्य मूलशङ्कर इति
नाम अकरोत् अष्टमे वर्षे चास्योपनयनमकरोत्। त्रयोदशवर्ष प्राप्तवतेऽस्मै
मूलशङ्कराय पिता शिवरात्रिव्रतमाचरितुम् अकथयत्। पितुराज्ञानुसार मूलशङ्करः
सर्वमपि व्रतविधानमकरोत्। रात्रौ शिवालये स्वपित्रा समं सर्वान् निद्रितान् विलोक्य
स्वयं जागरितोऽतिष्ठत् शिवलिङ्गस्य चोपरि मूषिकमेकमितस्ततः विचरन्तं दृष्ट्वा
शहितमानसः सत्यं शिवं सुन्दरं लोकशङ्करं शङ्करं साक्षात्कर्तुं हृदि निश्चितवान्
ततः प्रभृत्येव शिवरात्रेः उत्सवः ‘ऋषिबोधोत्सवः’ इति नाम्ना
श्रीमद्दयानन्दानुयायिनाम् आर्यसमाजिनां मध्ये प्रसिद्धोऽभूत्।
सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘महर्षिर्दयानन्दः’ नामक पाठ से उद्धृत है।
अनुवाद सौराष्ट्र प्रान्त के टंकारा नामक ग्राम में उत्तरी ब्राह्मणवंश के श्रीकर्षण तिवारी नामक धनी सेठ की पत्नी ने, ‘भगवान शिव की पत्नी पार्वती की भौति विक्रम सम्वत् 1881 के भाद्रपद मास की नवमी तिथि, गुरुवार को मूल नक्षत्र में पुत्ररत्न को जन्म दिया।
‘यह भगवान शिव को भजे’ ऐसा विचार कर पिता ने जन्म के दसवें दिन अपने पुत्र का नाम ‘मूलशंकर’ रखा तथा आठवें वर्ष में इनका यज्ञोपवीत संस्कार किया। तेरह वर्ष पूर्ण होने पर मूलशंकर को पिता ने शिवरात्रि का व्रत रखने के लिए कहा। पिता की आज्ञा के अनुसार मूलशंकर ने व्रत के समस्त विधान पूर्ण किए।
रात्रि में शिवालय में अपने पिता संग सबको सोया देख ये स्वयं जागे बैठे रहे तथा शिवलिंग पर एक चूहे को इधर-उधर घूमता देख इनका मन सशंकित हो उठा। (इन्होंने) सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् लोक मंगलकारी भगवान शंकर का साक्षात्कार करने का हृदय में निश्चय किया। तभी से लेकर श्रीमान दयानन्द के अनुयायी आर्यसमाजियों में शिवरात्रि का उत्सव ‘ऋषिबौधोत्सव’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
विशेष महर्षि दयानन्द को ज्ञान प्राप्त होने को ‘ऋषिबोधोत्सव’ नाम से जाना जाता है।
गद्यांश 2
यदा अयं षोडशवर्षदेशीयः आसीत् तदास्य कनीयसी भगिनी विधूचिकया पञ्चत्वं गता। वर्षत्रयानन्तरमस्य पितृव्योऽपि दिवङ्गतः। द्वयोरनयः मृत्युं दृष्ट्वा आसीदस्य मनसि कथमुहं कथंवायं लोकः मृत्युभयात् मुक्तः स्यादिति चिन्तयतः एवास्य हदि सहसैव वैराग्यप्रदीपः प्रज्वलितः। एकस्मिन् दिवसे अस्तङ्गते भगवति भास्वति मूलशङ्करः गृहमत्यजत्। (2017)
सन्दर्भ पूर्ववत्।
अनुवाद जब ये लगभग सोलह वर्ष के थे, तब इनकी छोटी बहन की मृत्यु हैजे से हो गई। तीन वर्षों के उपरान्त इनके चाचा भी स्वर्ग सिधार गए। इन दोनों की मृत्यु देख इनके मन में (प्रश्न) उठा कि मृत्यु के भय से कैसे मुझे और कैसे इस जग को मुक्ति मिल सकती है? ऐसा विचार करते हुए इनके हृदय में सहसा वैराग्य का दीपक जल उठा। एक दिन भगवान सूर्य के अस्त होने के उपरान्त मूलशंकर ने घर त्याग दिया।
गद्यांश 3
सप्तदशवर्षाणि यावत् अमरत्वप्राप्त्युपायं चिन्तयन् मूलशङ्करः आमाद् ग्राम, नगरानगरं, वनाद् वनं, पर्वतात् पर्वतमभ्रमत् परं नाविन्दतातितरां तृप्तिम् । अनेकेभ्यो विद्वद्भ्यः व्याकरण-वेदान्तादीनि शास्त्राणि योगविद्याश्च अशिक्षत्। नर्मदातटे च पूर्णानन्दसरस्वतीनाम्नः संन्यासिनः सकाशात् संन्यासं गृहीतवान् ‘दयानन्दसरस्वती’ इति नाम च अङ्गीकृतवान्। (2016, 10)
सन्दर्भ पूर्ववत्।।
अनुवाद मूलशंकर सत्रह वर्ष तक अमरता प्राप्ति के उपाय पर विचार करते हुए गाँव-गाँव, शहर-शहर, वन-वन, पर्वत-पर्वत घूमते रहे, किन्तु सन्तुष्टि नहीं पा सके। अनेक विद्वानों से व्याकरण, वेदान्त आदि शास्त्र तथा योग विद्या सीखी। इन्होंने नर्मदा नदी के तट पर ‘पूर्णानन्द सरस्वती’ नाम के संन्यासी से संन्यास ग्रहण कर ‘दयानन्द सरस्वती’ नाम अंगीकार किया।
गद्यांश 4
गुरुः विरजानन्दोऽपि कुशाग्रबुद्धिमिमं दयानन्दं त्रीणि वर्षाणि यावत् पाणिनेः
अष्टाध्यायींमन्यानि च शास्त्राणि अध्यापयामास। समाप्तविद्यः दयानन्दः परमया
श्रद्धया गुरुमवदत्-भगवन् ! अहम् अकिञ्चनतया तनुमनोभ्यां समं केवलं
लवङ्गजातमेव समानीतवानस्मि। अनुगृहणातु भवान् अङ्गीकृत्य मदीयामिमां गुरुदक्षिणाम्। (2018, 16, 14, 10)
सन्दर्भ पूर्ववत्।
अनुवाद गुरु विरजानन्द ने भी इस कुशाग्र बुद्धि वाले दयानन्द को तीन वर्षों तक पाणिनी की अष्टाध्यायी एवं अन्य शास्त्रों का अध्ययन कराया। विद्यार्जन पूर्ण कर दयानन्द ने अपने परम श्रद्धेय गुरु से कहा, “भगवन्! मैं दरिद्र होने के कारण आपके लिए तन-मन से मात्र कुछ लौंग लाया हूँ। आप मेरी इस गुरुदक्षिणा को स्वीकार कर मुझे अनुगृहीत कृतज्ञ करें।”
गद्यांश 5
प्रीतः गुरुस्तमभाषत-सौम्य! विदितवेदितव्योऽसि, नास्ति किमपि अविदितं
तव। अद्यत्वेऽस्माकं देशः अज्ञानान्धकारे निमग्नो वर्तते, नार्यः अनाद्रियन्ते,
शूद्राश्च तिरस्क्रियन्ते, अज्ञानिनः पाखण्डनश्च पूज्यन्ते। वेदसूर्योदयमन्तरा
अज्ञानान्धकारं न गमिष्यति। स्वस्त्यस्तु ते, उन्नमय पतितान् , समुद्धर
स्त्रीजाति, खण्डये पाखण्डम्, इत्येव मेऽभिलाष इयमेव च मे गुरुदक्षिणा। (2016, 12)
सन्दर्भ पूर्ववत्।।
अनुवाद गुरु ने प्रसन्नतापूर्वक उनसे कहा, “सौम्य! तुम जानने योग्य सभी बातें जान चुके हो, अब तुम्हें कुछ भी अज्ञात नहीं। इन दिनों हमारा राष्ट्र अज्ञानरूपी अन्धकार में डूबा हुआ है। आज यहाँ नारियों का अनादर किया जाता है, शूद्र तिरस्कृत किए जाते हैं और अज्ञानी व पाखण्डी पूजे जाते हैं। अज्ञानरूपी अन्धकार बिना वेदरूपी सूर्य के उदित हुए दूर नहीं होगा। तुम्हारा कल्याण हो, पतितों को ऊँचा उठाओ, स्त्री-जाति का उद्धार करो, पाखण्ड का नाश करो, यह मेरी अभिलाषा है और यही मैरी गुरुदक्षिणा है।”
गद्यांश 6
गुरुणा एवम् आज्ञप्तः महर्षिर्दयानन्दः एतद्देशवासिनो जनान् उद्धत कर्मक्षेत्रेऽवतरत्। सर्वप्रथमं हरिद्वारे कुम्भपर्वणि भागीरथीतटे पाखण्डखण्डिनी पताकामस्थापयत्। ततश्च हिमाद्रि गत्वा त्रीणि वर्षाणि तपः अतप्यत्। तदनन्तरमयं प्रतिपादितवान् ऋग्यजुसामाथवणो वेदाः नित्या ईश्वर काश्च, ब्राह्मण-क्षत्रिय वैश्य-शूद्राणां गुण-कर्मस्वभावैः विभागः न तु जन्मना, चत्वारः एव आश्रमाः, ईश्वरः एकः एव, ब्रह्म-पितृ-देवातिथि-बलि-वैश्वदेवाः पञ्च महायज्ञा नित्यं करणीमाः। ‘स्त्रीशूद्री वेदं नाधीयाताम् अस्य वाक्यस्य असारतां प्रतिपाद्य सर्वेषां वेदाध्ययनाधिकार व्यवस्थापयत्। एवमयं पाखण्डोन्मूलनाय वैदिक धर्मसंस्थापनाय च सर्वत्र भ्रमति स्म। एवमार्यज्ञानमहादीपो देवो दयानन्दः यावज्जीवनं देशजायुद्धाराय प्रयतमानः तदर्थ स्वजीवनमपि दत्तवान् मुक्तिञ्चाध्यगच्छत् एवमस्य महर्षेः जीवनं नूनमनुकरणीयमस्ति। (2017)
सन्दर्भ पूर्ववत्।।
अनुवाद गुरु से इस प्रकार आज्ञा प्राप्त करकें महर्षि दयानन्द इस देश के निवासी मनुष्यों के उद्धार के लिए कर्मक्षेत्र में कूद पड़े। सर्वप्रथम हरिद्वार में कुम्भपर्व पर गंगा के किनारे पाखण्ड का नाश करने वाली पताका (ध्वजा) को स्थापित किया। उसके बाद हिमालय पर्वत पर जाकर तीन वर्ष तक तप किया। इसके बाद उन्होंने प्रतिपादित किया कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद नित्य हैं और ईश्वर द्वारा रचित हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का विभाजन गुण, कर्म और प्रकृति के अनुरूप है, न कि जन्म से।
आश्रम चार ही हैं। ईश्वर एक ही है। ब्रह्म, पितृ, देव, अतिथि तथा अलिवैश्वदेव में पाँच महायज्ञ प्रतिदिन हीं करने चाहिए। “स्त्री और शूद्र को वेद नहीं पढ़ने चाहिए”-इस वाक्य की सारहीनता का प्रतिपादन करके सभी के लिए वेद को पढ़ने के अधिकार की व्यवस्था की। इस तरह ये पाखण्ड की समाप्ति के लिए और वैदिक धर्म की स्थापना के लिए सब जगह घूमते रहे। इस प्रकार आर्य-शान के महान् दीप देव दयानन्द ने सम्पूर्ण जीवन देश और जाति के उद्धार के लिए अर्पित कर दिया और मोक्ष प्राप्त किया। इस प्रकार इन महर्षि का जीवन निश्चित रूप से अनुकरणीय है।
प्रश्न – उत्तर
प्रश्न-पत्र में संस्कृत दिग्दर्शिका के पाठों (गद्य व पद्य) में से चार अतिलघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएंगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।
प्रश्न 1.
महर्षेः दयानन्दस्य पितुः नाम किम् आसीत्? (2014)
उत्तर:
महर्षेः दयानन्दस्य पितुः नाम श्रीकर्षणतिवारी आसीत्।
प्रश्न 2.
महर्षेः दयानन्दस्य जन्मः कस्मिन् स्थाने/ग्रामे अभवत्। (2018, 17, 14, 10)
अथवा
महर्षेः दयानन्दस्य जन्मभूमिः कुत्र आसीत्
अथवा
मूलशङ्करस्य जन्म कुत्र अभवत्? (2018, 14)
उत्तर:
महर्षेः दयानन्दस्य जन्म सौराष्ट्रप्रान्ते टङ्कारानाम्नि ग्रामे अभवत्।
प्रश्न 3.
महर्षेः दयानन्दस्य बाल्यकालिकं किं नाम आसीत्?
उत्तर:
महर्षेः दयानन्दस्य बाल्यकालिकं मूलशङ्करः इति नाम आसीत्।।
प्रश्न 4.
दयानन्दस्य भगिनी कथं पञ्चत्वं गता? (2017, 14)
उत्तर:
दयानन्दस्य भगिनी विषूचिकया पञ्चत्वं गता।
प्रश्न 5.
मूलशङ्करस्य हृदये वैराग्यं कथम् उत्पन्नम्। (2012)
उत्तर:
स्वभगिन्याः पितृव्यस्य च मृत्युं दृष्ट्वा मूलशङ्करस्य हृदये वैराग्यप्रदीप: प्रज्वलितः।
प्रश्न 6.
महर्षेः दयानन्दस्य गुरुः कः आसीत्? (2017, 16, 15, 13, 10)
अथवा
विरजानन्दः कस्य गुरुः आसीत्? (2015, 10)
उत्तर:
विरजानन्दः महर्षेः दयानन्दस्य गुरुः आसीत्!
प्रश्न 7.
दयानन्दः किमर्थं सर्वत्र भ्रमति स्म? (2018)
उत्तर:
दयानन्दः अमरत्व प्राप्त्युपायं चिन्तपन् सर्वत्र भ्रमति स्म।
प्रश्न 8.
दयानन्दः विद्याध्ययनार्थं कुत्र गत? (2018)
उत्तर:
दयानन्दः विद्याध्ययनार्थं मथुरानगरं गतः