शैक्षिक निबन्ध
1. शिक्षा और छात्र राजनीति (2016)
संकेत विन्दु भूमिका, शिक्षा और राजनैतिक गतिविधियाँ, शिक्षण संस्थानों में राजनीतिक विचारधारा, उपसंहार।।
भूमिका विद्यार्थी जीवन मानव जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समय होता है। इस काल में विद्यार्थी जिन विषयों का अध्ययन करता है अथवा जिन नैतिक मूल्यों को वह आत्मसात् करता है वही जीवन मूल्य उसके भविष्य निर्माण का आधार बनता है। विद्यार्थियों का मुख्य उद्देश्य शिक्षा ग्रहण करना है और उन्हें अपना पूरा ध्यान इसी ओर लगाना चाहिए।
लेकिन राष्ट्रीय परिस्थितियों का ज्ञान और उसके सुधार के उपाय सोचने की योग्यता पैदा करना भी शिक्षा में शामिल होना चाहिए ताकि वे राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सके। शिक्षा ही व्यक्ति का सर्वागीण विकास करती हैं। अतः प्रत्येक विद्यार्थी को पूरे मनोयोग से विद्याध्ययन करना चाहिए, परन्तु आज हमारे विद्यार्थियों का व्यवहार इसके बीच विपरीत ही नज़र आ रहा है।
आज वे अध्ययन की प्रवृत्ति को त्यागकर सक्रिय राजनीति की दलदल में धंसने के लिए तैयार बैठे प्रतीत होते हैं, इसी के परिणामस्वरूप हमारे देश की लगभग सभी शिक्षण संस्थाएँ गन्दी राजनीति का अखाड़ा बनती जा रही हैं।
शिक्षा और राजनैतिक गतिविधियाँ शिक्षा पद्धति की रूपरेखा बनाने वालों को स्वयं अपने अन्दर झाँकना चाहिए और सोचना चाहिए कि क्या उसमें मूलभूत परिवर्तन की जरूरत है। आज हम रत्नाकार छात्र पैदा कर रहे हैं, लेकिन वैचारिक रूप से स्वतन्त्र और परिपक्व छात्र नहीं, क्या यही हमारा उद्देश्य है?
विद्यार्थियों का मूल उद्देश्य शिक्षा प्राप्त करना होता है, जिसमें उन्हें पूरी लगन के साथ लगे रहना चाहिए, वरना उनके ज्ञानार्जन के कार्य में व्यवधान पड़ जाता है। वे कहते हैं कि एक सजग एवं प्रबुद्ध नागरिक होने के नाते, उन्हें निश्चित ही राजनैतिक नीतियों और गतिविधियों के प्रति जागरूक अवश्य रहना चाहिए, परन्तु सक्रिय राजनीति में प्रवेश करना किसी भी प्रकार उचित नहीं है। यदि छात्र सक्रिय और दलगत राजनीति में फंस जाते हैं, तो शिक्षा के श्रेष्ठ आदर्श को भूलकर वे अपने मार्ग से भटक जाते हैं। सक्रिय राजनीति में प्रवेश से पहले उन्हें अपनी शिक्षा पूरी करनी चाहिए। जहाँ तक सक्रिय राजनीति की शिक्षा प्राप्त करने का प्रश्न है, जो तिलक, गोखले और गाँधी जैसे अनेक नेताओं के उदाहरण हमारे सामने हैं, जिन्हें ऐसी किसी शिक्षा की आवश्यकता कभी नहीं पड़ी।
गाँधी और जयप्रकाश नारायण द्वारा किए गए छात्रों के आह्वान के सन्दर्भ में कहा जाता है कि जहाँ गाँधी ने स्वतन्त्रता संघर्ष के निर्णायक दौर में देश की सम्पूर्ण शक्ति को लगा देने की दृष्टि से ही ऐसा किया था, वहीं जयप्रकाश नारायण ने भी छात्रों को विषम परिस्थितियों में क्रियाशील बनाने की नीयत से ही उन्हें ललकारा था। वास्तव में उपरोक्त दोनों नेताओं सहित अन्य बड़े-बड़े नेताओं ने देश के विद्यार्थी समुदाय को यही परामर्श दिया है कि वे पूर्ण निष्ठा व लगन के साथ अपनी पढ़ाई करें तथा नई-नई ऊँचाइयों को छुएँ।
शिक्षण संस्थानों में राजनीतिक विचारधारा शिक्षण संस्थानों में राजनीति के बीज बोने का काम राजनीतिक दल करते हैं। ये राजनीतिज्ञ छात्रों की विशेषताओं से भली-भाँति परिचित होते हैं। वे जानते हैं कि युवा विद्यार्थी प्रायः आदर्शवादी होते हैं। और उन्हें आदर्श से ही प्रेरित किया जा सकता है। उन्हें यह पता होता है कि संगठित छात्र-शक्ति असीम होती है। उन्हें यह भी ज्ञान होता है कि विद्यार्थी वर्ग एक बार किसी को अपना नेता मान लेने के बाद उस पर पूर्ण निष्ठा रखने लगता है। वे इस तथ्य से भी परिचित होते हैं कि सामान्यत: छात्र समुदाय राजनीतिक की टेही चालों तथा उनके पीछे छिपे स्वार्थों को ताड़ पाने की परिपक्व बुद्धि से युक्त नहीं होते।।
इन्हीं बातों को देखते हुए राजनीतिज्ञ अपनी स्वार्थ पूर्ति के उद्देश्य से उनको सक्रिय राजनीति में घसीटने के कुत्सित प्रयास करते हैं। यह स्पष्ट है कि राजनीति में विद्यार्थी स्वयं नहीं जाते, बल्कि स्वार्थी राजनीतिज्ञ ही उन्हें उसमें खींचने का यत्न करते रहते हैं। इसकी पूरी सम्भावना है कि राजनीतिज्ञ छात्र-शक्ति को अपने हित साधन का माध्यम बनाते ही रहेंगे।
उपसंहार अतः कहा जा सकता है कि छात्र शक्ति को सही मार्गदर्शन देते हुए राष्ट्रहित में उसका योगदान सुनिश्चित करना जरूरी है। छात्रसंघों के चुनाव अनेक राज्यों में प्रतिबन्धित हैं। छात्रसंघों से राजनीति और सत्ता को घबराहट होती है। यहां तक कि जो राजनेता छात्रसंघों के माध्यम से राजनीति में आए, वे भी छात्रसंघों के प्रति उदार नहीं हैं। होना यह चाहिए कि छात्रसंघ विद्यार्थियों के सांस्कृतिक, वैचारिक और राजनीतिक रुझानों के विकास में सहायक बनें ताकि छात्र नेतृत्व और उसकी गम्भीरता को समझकर अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके। छात्रसंघ और छात्र राजनीति कहीं-न-कहीं इस भूमिका से जुड़ी हुई है, इसलिए देश के राजनेताओं व अन्य प्रशासकों को इनका गला दबाने का अवसर मिला।
2. शिक्षा में आरक्षण (2016)
संकेत बिन्दु भूमिका, शिक्षा में आरक्षण की व्यवस्था, निजी शिक्षण संस्थानों में आरक्षण, आरक्षण के नाम पर राजनीति, उपसंहार।।
भूमिका स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में दलितों एवं आदिवासियों की दशा अत्यंत दयनीय थी। इसलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने काफी सोच-समझकर इनके लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की और वर्ष 1950 में संविधान के लागू होने के साथ ही सुविधाओं से वंचित वर्गों को आरक्षण की सुविधा मिलने लगी, ताकि देश के संसाधनों, अवसरों एवं शासन प्रणाली में समाज के प्रत्येक समूह की उपस्थिति सुनिश्चित हो सके। उस समय हमारा समाज ऊँच-नीच, जाति-पांति, छुआछूत जैसी कुरीतियों से ग्रसित था।
हमारे पूर्व प्रधानमन्त्री श्री लालबहादुर शास्त्री ने एक बार कहा भी था-“यदि कोई एक व्यक्ति भी ऐसा रह गया जिसे किसी रूप में अछूत कहा जाए, तो भारत को अपना सर शर्म से झुकाना पड़ेगा।” वास्तव में, आरक्षण वह माध्यम है, जिसके द्वारा जाति, धर्म, लिंग एवं क्षेत्र के आधार पर समाज में भेदभाव से प्रभावित लोगों को आगे बढ़ने का अवसर प्राप्त होता है, किन्तु वर्तमान समय में देश में प्रभावी आरक्षण नीति को उचित नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि आज यह राजनेताओं के लिए सिर्फ चोट बटोरने की नीति बनकर रह गई है। वंचित वर्ग आरक्षण के लाभ से आज भी अछूता है।
शिक्षा में आरक्षण की व्यवस्था शिक्षा आज एवं आने वाले भविष्य का सबसे महत्त्वपूर्ण विषय है। प्राचीन काल में शिक्षा के क्षेत्र में होने वाले भेदभाव को देखते हुए शिक्षा में आरक्षण की व्यवस्था की गई। प्राचीन समय में सभी को शिक्षा के समान अवसर प्राप्त न होने के कारण जाति, लिग, जन्मस्थान, धर्म के आधार पर शिक्षा के क्षेत्र में भी भेदभाव होता था। देश की उन्नति के लिए शिक्षा को बढ़ावा देने की बहुत अधिक आवश्यकता थी, जिसके लिए सभी को समान शिक्षा के अधिकार देने की ज़रूरत थी, इसलिए संविधान में इसके लिए प्रावधान किया गया।
भारतीय संविधान में वंचित वर्गों के उत्थान के लिए विशेष प्रावधान का वर्णन इस प्रकार है-अनुच्छेद-15 (समानता का मौलिक अधिकार) द्वारा राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी एक के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा, लेकिन अनुच्छेद-15 (4) के अनुसार इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 के खण्ड (2) की कोई बात राज्य को शैक्षिक अथवा सामाजिक दृष्टि से पिछड़े नागरिकों के किन्हीं वर्गों की अथवा अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के लिए कोई विशेष व्यवस्था बनाने से नहीं रोक सकती अर्थात् राज्य चाहे तो इनके उत्थान के लिए आरक्षण या शुल्क में कमी अथवा अन्य उपबन्ध कर सकती है। कोई भी व्यक्ति उसकी विधि मान्यता पर हस्तक्षेप नहीं कर सकता कि यह वर्ग-विभेद उत्पन्न करते हैं।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय से ही भारत में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियों एवं शिक्षा में आरक्षण लागू हैं। मण्डल आयोग की संस्तुतियों के लागू होने के बाद वर्ष 1993 से ही अन्य पिछड़े वर्गों के लिए नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था कर दी गई। वर्ष 2006 के बाद से केन्द्र सरकार के शिक्षण संस्थानों में भी अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण लागू हो गया। इस प्रकार आज समाज के अत्यधिक बड़े तबके को आरक्षण की सुविधाओं का लाभ प्राप्त हो रहा है, लेकिन इस आरक्षण नीति का कोई उचित परिणाम नहीं निकला।
अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए आरक्षण लागू होने के लगभग छः दशक बीत चुके हैं और मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के भी लगभग दो दशक पूरे हो चुके हैं, लेकिन क्या सम्बन्धित पक्षों को उसका पर्याप्त लाभ मिला? सत्ता एवं सरकार अपने निहित स्वार्थों के कारण आरक्षण की नीति की समीक्षा नहीं करती।
अन्य पिछड़े वर्गों के लिए मौजूद आरक्षण की समीक्षा तो सम्भव भी नहीं है, क्योंकि इससे सम्बद्ध वास्तविक आँकड़ों का पता ही नहीं है, चूंकि आँकड़े नहीं हैं, इसलिए योजनाओं का कोई लक्ष्य भी नहीं हैं। आंकड़ों के अभाव में इस देश के संसाधनों, अवसरों और राजकाज में किस जाति और जाति समूह की कितनी हिस्सेदारी है, इसका तुलनात्मक अध्ययन ही सम्भव नहीं है। सैम्पल सर्वे (नमूना सर्वेक्षण) के आँकड़े इसमें कुछ मदद कर सकते हैं, लेकिन इतने बड़े देश में चार-पाँच हज़ार के नमूना सर्वेक्षण से ठोस नतीजे नहीं निकाले जा सकते।
निजी शिक्षण संस्थानों में आरक्षण सरकार ने 104वें संविधान संशोधन के द्वारा देश में सरकारी विद्यालयों के साथ-साथ गैर-सहायता प्राप्त निजी शिक्षण संस्थानों में भी अनुसूचित जातियों/जनजातियों एवं अन्य पिछड़े वर्गों के अभ्यर्थियों को आरक्षण का लाभ प्रदान कर दिया है। सरकार के इस निर्णय का समर्थन और विरोध दोनों किए गए हैं। वास्तव में, निजी क्षेत्रों में आरक्षण लागू होना अत्यधिक कठिन है, क्योंकि निजी क्षेत्र लाभ से समझौता नहीं कर सकते, यदि गुणवत्ता प्रभावित होने से ऐसा होता हो। ‘तुलियन सिविजियन’ ने कहा था-“जब आप पर खोने के लिए कुछ भी न होगा, तब आप अद्भुत आविष्कार करेंगे, आप बिना डर या आरक्षण के बड़ा जोखिम लेने हेतु तैयार रहेंगे।”
आरक्षण के नाम पर राजनीति पिछले कई वर्षों से आरक्षण के नाम पर राजनीति हो रही है, आए दिन कोई-न-कोई वर्ग अपने लिए आरक्षण की माँग कर बैठता है एवं इसके लिए आन्दोलन करने पर उतारू हो जाता है। इस तरह, देश में अस्थिरता एवं अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
आर्थिक एवं सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर निम्न तबके के लोगों के उत्थान के लिए उन्हें सेवा एवं शिक्षा में आरक्षण प्रदान करना उचित है, लेकिन जाति एवं धर्म के आधार पर तो आरक्षण को कतई भी उचित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि एक ओर तो इससे समाज में विभेद उत्पन्न होता है, तो दूसरी ओर आरक्षण पाकर व्यक्ति कर्म क्षेत्र से भी विचलित होने लगता है।
कार्लाइल के अनुसार, “तुम किसी समुदाय को निष्क्रिय बनाना चाहते हो, तो उसे अतिरिक्त सुविधाएँ दे दो, सुविधाओं के व्यामोह में समुदाय कर्मपथ से विरत हो जाएगा।” ऊँची डाली को छूने के लिए हमें ऊपर उठना चाहिए न कि डाली को ही झुकाना चाहिए। उसी तरह, कमजोर को योग्य बनाकर उसे कार्य सौंपे न कि आरक्षण से कार्य को ही झुका दें |
उपसंहार वर्ष 2014 के प्रारम्भ में कांग्रेस पार्टी के महासचिव श्री जनार्दन द्विवेदी ने कहा था कि देश में आरक्षण जाति आधार पर नहीं, बल्कि आर्थिक आधार पर किया जाना चाहिए।
वास्तव में, द्विवेदी जी की कही बात पर गम्भीरतापूर्वक विचारने का समय आ गया है, क्योंकि आज प्रश्न गरीबी का है और गरीबी की कोई जाति या धर्म नहीं होता। आज समाज के हर वर्ग के उत्थान हेतु आरक्षण के अलावा अन्य विकल्प भी खोजा जाना चाहिए, ताकि समाज में सबके साथ न्याय हो सके और सभी वर्गों के लोग एक साथ उन्नति के पथ पर अग्रसर हो सकें।
3. छात्र जीवन में अनुशासन का महत्त्व (2014, 13, 12)
अन्य शीर्षक विद्यार्थी और अनुशासन (2011), छात्रों में अनुशासन की समस्या।।
संकेत बिन्दु अनुशासन का तात्पर्य, अनुशासनहीनता के दुष्परिणाम, घर- समाज से अनुशासन की शिक्षा, अनुशासन सफलता की कुंजी, उपसंहार।
अनुशासन का तात्पर्य अनुशासन शब्द का अर्थ है-‘शासन के पीछे चलना’ अर्थात् सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक सभी प्रकार के आदेशों और नियमों का पालन करना। ‘शासन’ शब्द में दण्ड की भावना छिपी हुई है, क्योंकि नियमों का निर्माण लोक कल्याण के लिए होता है। चाहे वे किसी भी प्रकार के नियम हों, उनका पालन करना उन सब व्यक्तियों के लिए अनिवार्य होता है। जिनके लिए वे बनाए गए हैं। पालन न करने पर दण्ड का विधान होता है, ताकि कोई भी मनमाने ढंग से नियम का उल्लंघन न कर सके।
अनुशासनहीनता के दुष्परिणाम बाल्यकाल में जिन बच्चों पर उनके माता-पिता लाड़ प्यार के कारण नियन्त्रण नहीं रख पाते, वे आगे चलकर गलत रास्ते पर चल पड़ते हैं। अनुशासन के अभाव में कई प्रकार की बुराइयाँ समाज में अपनी जड़े जमा लेती हैं। नित्य-प्रति होने वाले छात्रों के विरोध-प्रदर्शन, परीक्षा में नकल, शिक्षकों से बदसलूकी अनुशासनहीनता के ही उदाहरण हैं, इसका कुपरिणाम उन्हें बाद में जीवन की असफलताओं के रूप में भुगतना पड़ता है, किन्तु जब तक वे समझते हैं, तब तक देर हो चुकी होती है। अत: विद्यार्थी जीवन में अनुशासित रहना नितान्त आवश्यक है। यदि परिवार के मुखिया का शासन सही नहीं है तो परिवार में अव्यवस्था व्याप्त रहेगी ही। यदि किसी स्थान का प्रशासन सही नहीं है, तो वहाँ अपराध का ग्राफ स्वाभाविक रूप से ऊपर रहेगा। यदि राजनेता कानून का पालन नहीं करेंगे तो जनता से इसके पालन की उम्मीद नहीं की जा सकती।
यदि खेल के मैदान में कैप्टन स्वयं अनुशासित नहीं रहेगा, तो टीम के अन्य सदस्यों से अनुशासन की आशा करना व्यर्थ है और यदि टीम अनुशासित नहीं है। तो उसकी पराजय से उसे कोई नहीं बचा सकता।
इसी तरह, यदि देश की सीमा पर तैनात सैनिकों का कैप्टन ही अनुशासित न हो तो उसकी सैन्य टुकड़ी कभी अनुशासित नहीं रह सकती। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के शब्दों में—”अनुशासन के बिना न तो परिवार चल सकता है और न संस्था या राष्ट्र ही।
घर-समाज से अनुशासन की शिक्षा एक बच्चे का जीवन उसके परिवार से प्रारम्भ होता है। यदि परिवार के सदस्य गलत आचरण करते हैं, तो बच्चा भी उनका अनुसरण करेगा। परिवार के बाद बच्चा अपने समाज एवं स्कूल से सीखता है। यदि उसके साथियों का आचरण खराब होगा, तो उससे उसके भी प्रभावित होने की पूरी सम्भावना बनी रहेगी। यदि शिक्षक का आचरण गलत है तो भला बच्चे कैसे सही हो सकते हैं? इसलिए वही व्यक्ति अपने जीवन में अनुशासित रह सकता है, जिसे बाल्यकाल में ही अनुशासन की शिक्षा दी गई हो।
अनुशासन सफलता की कुंजी किसी मनुष्य की व्यक्तिगत सफलता में भी उसके विद्यार्थी जीवन की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। जो विद्यार्थी अपना प्रत्येक कार्य नियम एवं अनुशासन का पालन करते हुए सम्पन्न करते हैं, वे अपने अन्य साथियों से न केवल श्रेष्ठ माने जाते हैं, बल्कि सभी के प्रिय भी बन जाते हैं। महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानन्द, सुभाषचन्द्र बोस, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, डॉ. भीमराव अम्बेडकर, दयानन्द सरस्वती जैसे महापुरुषों का जीवन अनुशासन के कारण ही समाज के लिए उपयोगी और सबके लिए प्रेरणा स्रोत बन सका। अतः अनुशासन सफलता की कुंजी हैं।
उपसंहार रॉय स्मिथ ने ठीक ही कहा है-“अनुशासन वह निर्मल अग्नि है, जिसमें प्रतिभा क्षमता में रूपान्तरित हो जाती हैं। अतः हम सभी विद्यार्थियों को जीवन में अनुशासन को महत्त्व देते हुए अपने कर्तव्य पथ पर ईमानदारीपूर्वक चलने और अपने देश की सेवा करने का संकल्प लेना होगा, तभी हम सच्चे | अर्थों में अपनी मातृभूमि और भारतमाता का कर्ज चुका पाएँगे।