सूक्ति आधारित निबन्ध
1. जहाँ सुमति तहँ सम्पत्ति नाना/ससंगति (2018)
प्रस्तावना परमात्मा की सम्पूर्ण सृष्टि में मानव ही श्रेष्ठ माना जाता है, क्योकि मानव विवेकशील, विचारशील तथा चिन्तनशील प्राणी हैं। परमात्मा ने केवल मानव को ही बुद्धि अर्थात् चिन्तन शक्ति प्रदान की है। वह बुरा-भला सभी प्रकार का विचार करने में समर्थ है। समाज में उच्च स्थान प्राप्त करने के लिए मानव को नैतिक शिक्षा व सत्संगति की आवश्यकता पड़ती है। मानव को बाल्यावस्था से ही माता-पिता द्वारा अच्छे संस्कार प्राप्त होने चाहिए, क्योंकि बचपन के संस्कारों पर ही मानव का सम्पूर्ण जीवन निर्भर रहता है।
सत्संगति का अर्थ सत् + संगति अर्थात् अच्छे व्यक्तियों के साथ रहना, उनके आचार-विचार एवं व्यवहार का अनुशासन करना ही सत्संगति कहलाता है। सत्संगति मानव को ही नहीं अपितु पशु-पक्षी एवं निरीह जानवरों को भी दुष्प्रवृत्ति छोड़कर सदवृत्ति के लिए प्रेरित करती है।
सत्संगति की आवश्यकता मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह नित्य प्रति भिन्न भिन्न प्रकृति के व्यक्तियों के सम्पर्क में आता है। वह जिस भी प्रकृति के व्यक्ति के सम्पर्क में आता है, उसी के गुण-दोषों तथा व्यवहार आदि को ग्रहण कर लेता है। अतः मानव को बुरे लोगों की संगति से बचना चाहिए तथा सत्संगति अपनानी चाहिए, क्योकि सत्संगति ही मनुष्य को अच्छे संस्कार, उचित व्यवहार तथा उच्च विचार प्रदान करती है। बुराई के पंजों से बचने के लिए मानव को सत्संग की शरण लेनी चाहिए, तभी उसके विचार एवं व्यवहार श्रेष्ठ बनेंगे तथा उसका समाज में श्रेष्ठ स्थान बनेगा। यदि यह कुसंग में पड़ गया, तो उसका सम्पूर्ण जीवन विनष्ट हो जाएगा। अतः सत्संगति की महती आवश्यकता है।
सत्संगति से लाभ सत्संगति से मानव के आचार-विचार में परिवर्तन आता है और वह बुराई के मार्ग का त्याग कर सच्चे और अच्छे कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है। इस निश्चय के उपरान्त उसे अपने मार्ग पर अविचल गति से अग्रसर होना चाहिए। सत्संगति ही उसके सच्चे मार्ग को प्रदर्शित करती है। उस पर चलता हुआ मानव देवताओं की श्रेणी में पहुंच जाता है। इस मार्ग पर चलने वाले के सामने धर्म रोड़ा बनकर नहीं आता है। अतः उसे किसी प्रकार के प्रलोभनों से विचलित नहीं होना चाहिए।
कुसंगति को प्रभाव सत्संगति की भाँति कुसंगति का भी मानव पर विशेष प्रभाव पड़ता है, क्योकि कुसंगति तो काम, क्रोध, लोभ, मोह और बुद्धि भ्रष्ट करने वालों की जननी है। इसकी संतानें सत्संगति का अनुकरण करने वाले को अपने जाल में फंसाने का प्रयत्न करती हैं। महाबली भीष्म, धनुर्धर द्रोण और महारथी शकुनि जैसे महापुरुष भी
इसके मोह जाल में फंस कर पथ विचलित हो गए थे। उनके आदर्शों का तुरन्त ही | हनन हो गया था। कुसंगति मानव के सम्पूर्ण जीवन को विनष्ट कर देती है। अतः प्रत्येक मानव को बुरे लोगों के सम्पर्क से बचना चाहिए।
उपसंहार अत: प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह चन्दन के वृक्ष के समान अटल रहे। जिस प्रकार से विषधर रात-दिन लिपटे रहने पर भी उसे विष से प्रभावित नहीं कर सकते, उसी प्रकार सत्संगति के पथगामी का कुसंगति वाले कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते हैं।
सत्संगति कुन्दन है। इसके मिलने से काँच के समान मानव हीरे के समान चमक उठता है। अतः उन्नति का एकमात्र सोपान सत्संगति ही है। मानव को सज्जन परुषों के सत्संग में ही रहकर अपनी जीवन रूपी नौका समाज रूपी सागर से पार लगानी चाहिए। तभी वह आदर को प्राप्त कर सकता है तथा समस्त ऐश्वर्यों के सुख का उपभोग कर सकता है। इसीलिए कहा गया है कि जहाँ सुमति तहँ सम्पत्ति नाना।।।
2. को न कुसंगति पाई नसाई (2016)
संकेत बिन्दु भूमिका, सूक्ति का अर्थ, कुसंगति का प्रभाव, उपसंहार।।
भूमिका को न कुसंगति पाई नसाई’ सूक्ति को समझने से पूर्व ‘कुसंगति’ शब्द का अर्थ समझना आवश्यक है। कुसंगति का अर्थ है-कुबुद्धि (बुरी संगत), दुर्भाव, कुरुचि आदि। कुबुद्धि के प्रभाव से व्यक्ति सदैव बुरी बाते ही सोचता है। और बुरे कार्यों में ही निमग्न रहता है। व्यक्ति को बुरी संगति मिलने से उसमें बुरी बुद्धि का विकास होता है तथा उसे अपने जीवन में निरन्तर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कुसंगति में फंसे व्यक्तियों का विकास सर्वथा अवरुद्ध हो जाता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं। वह अकेला नहीं रह सकता। बचपन से ही मनुष्य को एक-दूसरे के साथ मिलने-बैठने और बातचीत करने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है। इसी को संगति कहा जाता है। बचपन में बालक अबोध होता है। उसे अच्छे बुरे की पहचान नहीं होती यदि वह अच्छी संगति में रहता है, तो उस पर अच्छे संस्कार पड़ते हैं और यदि उसकी संगति बुरी है तो उसकी आदतें भी बुरी हो जाती हैं।
सूक्ति का अर्थ कुसंगति के द्वारा व्यक्ति हीन-भावना से ग्रस्त होकर अपने मार्ग से विचलित हो जाता है। जिस व्यक्ति में कुबुद्धि, दुर्भाव आदि भावनाएँ | व्याप्त होती है उसे स्वयं ही घन, वैभव, यश आदि से हाथ धोना पड़ता है, जो व्यक्ति अपने हित के साथ अन्य लोगों के हितों को ध्यान में रखते हुए संगठित होकर कार्य नहीं करता उसे प्रत्येक क्षेत्र में असफलता ही प्राप्त होती है। सत्संगति में रहकर व्यक्ति योग्य और कुसंगति में पड़कर व्यक्ति अयोग्य बनकर समाज और परिवार दोनों में निरादर प्राप्त करता है। प्रस्तुत सूक्ति को कैकयी व मन्थरा के प्रसंग द्वारा उचित प्रकार से समझा जा सकता है। कैकयी राम को अत्यधिक प्रेम करती थी, किन्तु कैकयी को मंथरा द्वारा उकसाया गया जिससे कैकेयी अपनी दासी मन्थरा की बातों में आकर राजा दशरथ से दो वरदान माँगती हैं और प्रभु श्रीराम को अपने से दूर कर देती हैं। ठीक उसी प्रकार जब इनसान अपने जीवन में कुसंगति में रहता है, तो वह ईश्वर से कोसों दूर हो जाता है। कुसंगति ही इनसान के जीवन में दुःखों का भण्डार लाती है। कैकयी के जीवन में मन्थरा के कुसंग से विपत्तियाँ आई और उसका सब कुछ नष्ट हो गया।
कुसंगति को प्रभाव कुसंगति का मानव जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव प्रड़ता है। कुसंगति से सदा हानि होती है। मनुष्य को सतर्क और सावधान रहना चाहिए, क्योंकि कुसंगति काजल की कोठरी के समान है जिससे बेदाग बाहर निकलना असम्भव है। जीजाबाई की संगति में शिवाजी ‘छत्रपति शिवाजी’ बने, दस्यु रत्नाकर सुसंगति के प्रभाव से महामुनि वाल्मीकि बने, जिन्होंने रामायण नामक अमर काव्य लिखा। डाकू अंगुलिमाल, महात्मा बुद्ध के संगति में आकर उनका शिष्य बन गया और नर्तकी आम्रपाली का उद्धार हुआ। महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण ने अर्जुन का स्वजनों के प्रति मोह भंग कर युद्ध के लिए तैयार किया। वहीं दूसरी ओर कुसंगति में पड़कर भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, कर्ण, दुर्योधन आदि पतन के गर्त में चले गए। ये सभी अपने आप में विद्वान् और वीर थे, लेकिन कुसंगति का प्रभाव इन्हें विनाश की ओर खींच लाया। विद्यार्थी जीवन में सत्संगति का विशेष महत्त्व है। वह जैसी संगति में रहते हैं स्वयं वैसे ही बन जाते हैं जैसे कमल पर पड़ी बूंद नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार कुसंगति व्यक्ति को अन्दर से कलुषित कर उसका सर्वनाश कर देती है। इसलिए कहा गया है कि “दुर्जन यदि विद्वान् भी हो तो उसका संग त्याग देना चाहिए।
उपसंहार मानव जीवन में संगति का प्रभाव अवश्य पड़ता है। कुसंगति उसे पतन के गर्त में ले जाती हैं और वहीं दूसरी ओर सत्संगति उसके उत्थान का मार्ग खोल देती है। सामाजिक प्राणी होने के कारण मनुष्य को दूसरों के साथ किसी न किसी रूप में सम्पर्क करना पड़ता है। अच्छे लोगों की संगति जीवन को उत्थान की ओर ले जाती है, तो बुरी संगति पतन का द्वार खोल देती है।
संगति के प्रभाव से कोई नहीं बच सकता। हम जैसी संगति में रहते हैं, वैसा ही हमारा आचरण बन जाता है। तुलसीदास का कथन है-
‘बिनु सत्संग विवेक न होई।
अतः मनुष्य का प्रयास यही होना चाहिए कि वह कुसंगति से बचे और सुसंगति में रहे। तभी उसका कल्याण हो पाएगा।
3. परहित सरिस धरम नहिं भाई (2018, 12, 11, 10)
अन्य शीर्षक वही मनुष्य है, जो मनुष्य के लिए मरे। (2012)
संकेत बिन्दु भूमिका, सन्देश देती प्रकृति, संस्कृति का आधार परोपकार, जगत-कल्याण के लिए कृत संकल्प, उपसंहार।।
भूमिका ‘परहित’ अर्थात् दूसरों का हित करने की भावना की महत्ता को स्वीकार करते हुए ‘गोस्वामी तुलसीदास’ ने लिखा है
“परहित सरिस धरम नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।”
इन पंक्तियों का अर्थ है-परोपकार से बढ़कर कोई भी उत्तम धर्म यानी कर्म नहीं | है और दूसरों को कष्ट पहुँचाने से बढ़कर कोई नीच कर्म नहीं हैं। हमारे संस्कृत ग्रन्थ भी ‘परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्’ अर्थात् दूसरों को हित पहुंचाना पुण्यकारक तथा दूसरों को कष्ट देना पापकारक है, जैसे वचनों से भरे पड़े हैं। वास्तव में परहित या परोपकार की भावना ही मनुष्य को ‘मनुष्य’ बनाती है। किसी भूखे व्यक्ति को खाना खिलाते समय या किसी विपन्न व्यक्ति की सहायता करते समय हृदय को जिस असीम आनन्द की प्राप्ति होती हैं, वह अवर्णनीय हैं, वह अकथनीय है।
सन्देश देती प्रकृति हमारे चारों ओर प्रकृति का घेरा है और प्रकृति अपने क्रियाकलापों से हमें परहित हेतु जीने का सन्देश देती है, प्रेरणा देती है। सूर्य अपना सारा प्रकाश एवं ऊर्जा जगत के प्राणियों को दे देता है, नदी अपना सारा पानी जन जन के लिए लुटा देती हैं। वृक्ष अपने समग्र फल प्राणियों में बाँट देते हैं, तो वर्षा जगत की तप्तता को शान्त, करती है। प्रकृति की परोपकार भावना को महान् छायावादी कवि पन्तजी’ ने निम्न शब्दों में उकेरा है-
“हँसमुख प्रसून सिखलाते पलभर है-
जो हँस पाओ।
अपने उर सौरभ से
जग का आँगन भर जाओ।”
संस्कृति का आधार परोपकार भारत सदैव से अपनी परोपकारी परम्परा के लिए विश्वप्रसिद्ध रहा है। यहाँ ऐसे लोगों को ही महापुरुष की श्रेणी में शामिल किया गया है, जिन्होंने स्वार्थ को त्यागकर लोकहित को अपनाया। यहाँ ऋषियों एवं तपस्वियों की महिमा का गुणगान इसलिए किया जाता है, क्योंकि उन्होंने ‘स्व’ की अपेक्षा ‘पर’ को अधिक महत्त्व दिया। छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद कामायनी’ में लिखते हैं-
औरों को हँसते देखो मनु, हँसो और सुख पाओ,
अपने सुख को विस्तृत कर लो सब को सुखी बनाओ।”
जगत-कल्याण के लिए कृत संकल्प भारत की भूमि ही वह पावन भूमि है, जहाँ बुद्ध एवं महावीर जैसे सन्तों ने जगत-कल्याण के लिए अपना राजपाट, वैभव, सुख, सब कुछ त्याग दिया। परोपकार की भावना से ओत-प्रोत होने के लिए आवश्यक है कि हम अपने जीवन में प्रेम, करुणा, उदारता, दया जैसे सदगणों को धारण करें। दिखावे के लिए किया गया परोपकार अहंकार को जन्म देती है, जिसमें परोपकारी इसके बदले सम्मान पाने की भावना रखता है। वास्तव में यह, परोपकार नहीं, व्यापार है। परोपकार तो नि:स्वार्थ भावना से प्रकृति के विभिन्न अंगों के समान होना चाहिए। राजा भर्तृहरि ने नीतिशतक में लिखा है-‘महान् आत्माएँ अर्थात् श्रेष्ठ जन उसी प्रकार स्वतः दूसरों का भला करते हैं; जैसे- सूर्य कमल को खिलाता है, चन्द्रमा मुदिनी को विकसित करता है तथा बादल बिना किसी के कहे जल देता है।
उपसंहार परोपकार करने से व्यक्ति की आत्मा तृप्त होती है और विस्तृत भी। उसका हृदय एवं मस्तिष्क अपने-पराये की भावना से बहुत ऊपर उठ जाता है। इस आत्मिक आनन्द की तुलना भौतिक सुखों से नहीं की जा सकती। परोपकार व्यक्ति को अलौकिक आनन्द प्रदान करता है। उसमें मानवीयता का विस्तार होता है और वह सही अर्थों में मनुष्य कहलाने का अधिकारी बनता है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही लिखा है-
मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे,
यही पशु प्रवृत्ति है कि आप-आप ही चरे।”